गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
पाँचवां प्रकरण
भैषज्यमेतद् दुःखस्य यदेतन्नानुचितयेत् ।
इस इच्छा के अतिरिक्त प्रत्येक मनुष्य को इस बात का ज्ञान भी होना चाहिये कि हर एक कर्म का कुछ न कुछ फल अथवा परिणाम अवश्य ही होगा। बल्कि ऐसे ज्ञान के साथ साथ उसे इस बात की इच्छा भी अवश्य ही होगी। बल्कि ऐसे ज्ञान के साथ साथ उसे बात की इच्छा भी अवश्यक होनी चाहिये कि मैं अमुक फल-प्राप्ति के लिये अमुक प्रकार की योजना करके ही अमुक कर्म करना चाहता हूं; नहीं तो उसके सभी कार्य पागलों के से निरर्थक हुआ करेंगे। ये सब इच्छाएं, हेतु या योजनाएं परिणाम में दुःखकारक नहीं होतीं; और, गीता का यह कथन भी नहीं है, कि कोई उनको छोड़ दे। परन्तु स्मरण रहे कि इस स्थिति से बहुत आगे बढ़कर जब मनुष्य के मन में यह भाव होता है कि “मैं जो कर्म करता हूं, मेरे उस कर्म का अमुक फल मुझे अवश्य ही मिलना चाहिये’’- अर्थात जब कर्म-फल के विषय में, कर्ता की बुद्धि में ममत्व की यह आसक्ति, अभिमान, अभिनिवेश, आग्रह या इच्छा उत्पन्न हो जाती है और मन उसी से ग्रस्त हो जाता है और जब इच्छानुसार फल मिलने में बाधा होने लगती है, तभी दुःख-परम्परा का प्रारम्भ हुआ करता है। यदि यह बाधा अनिवार्य अथवा देवकृत हो तो केवल निराशा मात्र होती है; परन्तु वही कहीं मनुष्यकृत हुई तो फिर क्रोध और द्वेष भी उत्पन्न हो जाते हैं जिससे कुकर्म होने पर मर मिटना पड़ता है। कर्म के परिणाम के विषय में जो यह ममत्वयुक्त आसक्ति होती है उसी को ‘फलाशा’,‘संग’, ’काम’ और ‘अहंकारबुद्धि’ कहते हैं; और यह बतलाने के लिये, कि संसार की दुःख- परम्परा यहीं से शुरू होती हैं, गीता के दूसरे अध्याय में कहा गया है कि विषय-संग से काम, काम से क्रोध, क्रोध से मोह और अन्त में मनुष्य का नाश भी हो जाता है [2]। अब यह बात सिद्ध हो गई कि जड़ सृष्टि के अचेतन कर्म स्वयं दुःख के मूल कारण नहीं है, किन्तु मनुष्य उनमें जो फलाशा, संग, काम या इच्छा लगाये रहता है, वही यथार्थ में दुःख का मूल है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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