गीता रहस्य -तिलक पृ. 102

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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पाँचवां प्रकरण

ऐसे दुःखों से बचे रहने का सहज उपाय यही है कि सिर्फ विषय की फलाशा, संग, काम या आसक्ति को मनोनिग्रह द्वारा छोड़ देना चाहिये; संन्यासमार्गियों के कथनानुसार सब विषयों और कर्म ही को, अथवा सब प्रकार की इच्छाओं ही को, छोड़ देने की कोई आवश्यकता नहीं है। इसीलिये [1] में कहा है, कि जो मनुष्य फलाशा को छोड़कर यथाप्राप्त विषयों का निष्काम और निस्संग बुद्धि से सेवन करता है, वही सच्चा स्थितप्रज्ञ है। संसार के कर्म-व्यवहार कभी रुक नहीं सकते। मनुष्य चाहे इस संसार में रहे या न रहे; परन्तु प्रकृति अपने गुण-धर्मानुसार सदैव अपना व्यापार करती ही रहेगी। जड़ प्रकृति को न तो इसमें कुछ सुख है और न दुःख। मनुष्य व्यर्थ ही अपनी महता समझ कर प्रकृति के व्यवहारों में आसक्त हो जाता है, इसीलिये वह सुख-दुःख का भागी हुआ करता है। यदि वह इस आसक्त-बुद्धि को छोड़ दे और अपने सब व्यवहार इस भावना से करने लगे, कि “गुणा गुणेषु वर्तन्ते’’ [2]-प्रकृति के गुण- धर्मानुसार ही सब व्यापार हो रहे हैं, तो असंतोषजनक कोई भी दुःख उसको हो ही नहीं सकता। इसीलिये व्यासजी ने यह समझ कर, कि प्रकृति तो अपना व्यापार करती ही रहती है, उसके लिये संसार को दुःखप्रधान मान कर रोते नहीं रहना चाहिये और न उसको त्याग ने ही का दम भरना चाहिये, महाभारत[3] में युधिष्ठिर को यह उपदेश दिया है किः-

सुखं वा यदि वा दुःखं प्रियं वा यदि वाअप्रियम् । प्राप्तं प्राप्तमुपासीत हृदयेनापराजितः ।।

“चाहे सुख हो या दुःख, प्रिय लगे अथवा अप्रिय, परन्तु जो कार्य जिस समय जैसे आ पड़े, उसे उसी समय मन को निराश न करते हुए अर्थात मन को उचटने न देकर और अपने कर्तव्य को न छोड़ते हुए करते जाओ’’ इस उपदेश का महत्त्व पूर्णतया तभी ज्ञात हो सकता है जबकि हम इस बात को ध्यान में रखें कि संसार में अनेक कर्तव्य ऐसे है जिन्हें दुःख सह कर भी करना पड़ता है। भगवद्गीता में स्थितप्रज्ञ का यह लक्षण बतलाया है कि “यः सर्वत्रानभिस्नेहस्ततत्प्राप्य शुभाशुभम्’’ [4]अर्थात् शुभ अथवा अशुभ जो कुछ आपड़े, उस के बारे में जो सदा निष्काम या निस्संग रहता है और जो उसका अभिनन्दन या द्वेष कुछ भी नहीं करता वही स्थितप्रज्ञ है। फिर पांचवें अध्याय[5] में कहा है कि “न प्रह्ष्‍येत्प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम्’’- सुख पाकर फूल न जाना चाहिये और दुःख से खिन्न भी नहीं होना चाहिये; एवं दूसरे अध्याय[6] में इन सुख-दुःखों को निष्काम बुद्धि से भोगने का उपदेश किया है।

भगवान श्रीकृष्ण ने इसी उपदेश को बार बार दुहराया है [7]। वेदान्तशास्त्र की परिभाषा में इसी को “सब कर्मों को ब्रह्मार्पण करना’’ कहते हैं; और भक्तिमार्ग में ‘ब्रह्मार्पण’ के बदले ‘श्रीकृष्णार्पण’ शब्द की योजना की जाती है; बस यही गीतार्थ का सारांश है। कर्म चाहे किसी भी प्रकार का हो, परन्तु कर्म करने की इच्छा और उद्योग को बिना छोड़े तथा फल-प्राप्ति की आसक्ति न रख कर (अर्थात निस्संग बुद्धि से) उसे करते रहना चाहिये, और साथ साथ हमें भविष्य में परिणाम-स्वरूप में मिलने वाले सुख-दुःखों को भी एक ही समान भोगने के लिये तैयार रहना चाहिये। ऐसा करने से अमर्यादित तृष्णा और असंतोष-जनित दुष्परिणामों से तो हम बचेंगे ही; परन्तु दूसरा लाभ यह होगा,

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. गीता 2.64
  2. गी. 3.28
  3. शा. 25.26
  4. 2.57
  5. 5.20
  6. 2.14,15
  7. गी. 5.9; 13.9

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गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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