भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन
अध्याय-9
भगवान् अपनी सृष्टि से बड़ा है हमारी अपनी अपूर्णता और आप की अनुभूति ही हमारे हृदयों में विद्यमान भगवान् के दबाव को प्रकट कर देती है। तुकाराम से तुलना कीजिएः ’’मैं पतियों में भी पतित हूं; तिगना पतित हूँ; परन्तु तू मुझे अपनी शक्ति द्वारा अवश्य ऊंचा उठा। न तो मेरा हृदय पवित्र है और न तेरे चरणों में मेरी श्रद्धा ही स्थिर है। मैं पाप से पैदा हुआ हूँ। मैं इसे कितनी बार कहूं? यह तुका कहता है।’’ फिर: ’’मैं बुद्धि से शून्य हूं, गरजमन्द हूँ और गरजमन्द से भी गया-बीता हूँ। मैं अपने मन को स्थिर नहीं कर सकता; मैं प्रयत्न करके हार गया हूँ; शान्ति और विश्राम मुझसे दूर है; मैंने तुझे पूर्ण श्रद्धा अर्पित की है; मैंने अपना जीवन तेरे चरणों पर रख दिया है; तेरी जैसी इच्छा हो वैसा कर। मुझे केवल तेरा ही आसरा है। हे भगवान्, मुझे तुझ पर विश्वास है। मैं मजबूती से तेरे चरणों में चिपटा हुआ हूँ। तुका कहता है कि मेरे प्रयत्न की देखभाल करना तेरा काम है।’’[1] एक दृष्टान्त में नाकेदार अपने हृदय के अन्तस्तम से प्रार्थना करता है: ’’हे परमात्मा, तू मुझ पापी के प्रति दयालु बन।’’इस श्लोक का यह अर्थ नहीं है कि हमें अपने कर्मों के परिणामों से आसानी से छुटकारा मिल सकता है। हम कारण को अपना कार्य उत्पन्न करने से रोक नहीं सकते। विश्व की व्यवस्था में किसी मनमाने हस्तक्षेप की अनुमति नहीं दी जा सकती।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ फ्रेजर और माराथीज: तुकाराम: 1, पृ0 92
- ↑ गरुड़ पुराण से तुलना कीजिए: भक्तिरष्टविधा ह्येषा यस्तिन् म्लेच्छोअपि वर्तते। स विपे्न्द्रो मुनिः श्रीमान् स यतिः स च पण्डितः॥
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