भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन
5.गुरु कृष्ण
मैगस्थनीज़ (ईसवी पूर्व 320) ने लिखा है कि हैराक्लीज़ की पूजा सौरासैनोई (शूरसेन) लोगों द्वारा की जाती थी, जिनके देश में दो बड़े शहर मैथोरा (मथुरा) और क्लीसोबोरा (कृष्णपुर) हैं। तक्षशिला के यूनानी भागवत हीलियोडोरस ने बेसनगर के शिलालेख (ईसवी-पूर्व 180) में वासुदेव को देवादेव (देवताओं का देवता) कहा है। नानाघाट के शिलालेख में, जो ईसवी-पूर्व पहली शताब्दी का है, प्रारम्भिक श्लोक में अन्य देवताओं के साथ-साथ वासुदेव की भी स्तुति की गई है। राधा, यशोदा और नन्द जैसे प्रमुख व्यक्तियों का उल्लेख बौद्ध गाथाओं में भी मिलता है। पतंजलि ने पाणिनि पर टीका करते हुए अपने महाभाष्य में 4, 3, 98 में, वासुदेव को भागवत कहा है। यह पुस्तक ‘भगवद्गीता’ कहलाती है, क्योंकि भागवत धर्म में कृष्ण को श्री भगवान समझा जाता है। कृष्ण ने जिस सिद्धान्त का प्रचार किया है, वह भागवत धर्म है। गीता में कृष्ण ने कहा है कि वह कोई नई बात नहीं कह रहा, अपितु केवल उसी बात को दुहरा रहा है, जो पहले उसने विवस्वान को बताई थी और विवस्वान ने मनु को और मनु ने इक्ष्वाकु को बताई थी।[1]महाभारत में कहा गया है कि “भागवत धर्म परम्परागत रूप से विवस्वान से मनु को और मनु से इक्ष्वाकु को प्राप्त हुआ था।”[2] ये दो सम्प्रदाय, जो एक ही रूप में प्रारम्भ किए गए थे, अवश्य एक ही रहे होंगे। कुछ अन्य प्रमाण भी हैं। नारायणीय या भागवत धर्म के प्रतिपादन में कहा गया है कि पहले इस धर्म का उपदेश भगवान ने भगवद्गीता में किया था।[3]फिर यह भी बताया गया है कि “इसका उपदेश भगवान ने कौरवों और पांडवों के युद्ध में उस समय किया था, जबकि दोनों पक्षों की सेनाएं युद्ध के लिए तैयार खड़ी थी और अर्जुन मोहग्रस्त हो गया था।”[4] यह एकेश्वरवादी (ऐकान्तिक) धर्म है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 4, 1, 3
- ↑ शान्तिपर्व, 348, 51-52
- ↑ कथितो हरिगीतासु। शान्तिपर्व 346, 10
- ↑ समुपोढेष्वनीकेषु कुरुपाण्डवयोर्मृधे। अर्जुने विमनस्के च गीता भगवता स्वयम्। शान्तिपर्व, 348, 8
- ↑ 12, 1 से आगे।
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