प्रेम सुधा सागर पृ. 423

श्रीप्रेम सुधा सागर

दशम स्कन्ध
(उत्तरार्ध)
बासठवाँ अध्याय

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चित्रलेखा ने कहा- ‘सखी! यदि तुम्हारा चित्त चोर त्रिलोकी में कहीं भी होगा, और उसे तुम पहचान करोगी, तो मैं तुम्हारी विरह-व्यथा वश्य शान्त कर दूँगी। मैं चित्र बनाती हूँ, तुम अपने चित्त चोर प्राणवल्लभ को पहचान कर बतला दो। फिर वह चाहे कहीं भी होगा, मैं उसे तुम्हारे पास ले आऊँगी’। यों कहकर चित्रलेखा ने बात-की-बात में बहुत-से देवता, गन्धर्व, सिद्ध, चारण, पन्नग, दैत्य, विद्याधर, यक्ष और मनुष्यों के चित्र बना दिये। मनुष्यों में उसने वृष्णिवंशी वसुदेवजी के पिता शूर, स्वयं वसुदवजी, बलरामजी और भगवान श्रीकृष्ण आदि के चित्र बनाये। प्रद्दुम्न का चित्र देखते ही ऊषा लज्जित हो गयी। परीक्षित्! जब उसने अनिरुद्ध का चित्र देखा, तब तो लज्जा के मारे उसका सिर नीचा हो गया। फिर मन्द-मन्द मुसकराते हुए उसने कहा- ‘मेरा यह प्राणवल्लभ यही है, यही है’।

परीक्षित्! चित्रलेखा योगिनी थी। वह जान गयी कि ये भगवान श्रीकृष्ण के पौत्र हैं। अब वह आकाशमार्ग से रात्रि में ही भगवान श्रीकृष्ण के द्वारा सुरक्षित द्वारकापुरी में पहुँची। वहाँ अनिरुद्धजी बहुत ही सुन्दर पलँग पर सो रहे थे। चित्रलेखा योगसिद्धि के प्रभाव से उन्हें उठाकर शोणितपुर ले आयी और अपनी सखी उषा को उसके प्रियतम का दर्शन करा दिया। अपने परम सुन्दर प्राणवल्लभ को पाकर आनन्द की अधिकता से उसका मुखकमल प्रफुल्लित हो उठा और वह अनिरुद्धजी के साथ अपने महल में विहार करने लगी। परीक्षित्! उसका अन्तःपुर इतना सुरक्षित था कि उसकी ओर कोई पुरुष झाँकतक नहीं सकता था। उषा का प्रेम दिन दूना रात चौगुना बढ़ता जा रहा था। वह बहुमूल्य वस्त्र, पुष्पों के हार, इत्र-फुलेल, धूप-दीप, आसन आदि सामग्रियों से, सुमधुर पेय (पीने योग्य पदार्थ—दूध, शरबत आदि), भोज्य (चबाकर खाने-योग्य) और भक्ष्य (निगल जाने योग्य) पदार्थों से तथा मनोहर वाणी एवं सेवा-शुश्रूषा से अनिरुद्धजी का बड़ा सत्कार करती। उषा ने अपने प्रेम से उनके मन को अपने वश में कर लिया। अनिरुद्धजी उस कन्या के अन्तःपुर में छिपे रहकर अपने-आपको भूल गये। उन्हें इस बात का भी पता न चला कि मुझे यहाँ आये कितने दिन बीत गये।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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