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श्रीप्रेम सुधा सागर
दशम स्कन्ध
(उत्तरार्ध)
बासठवाँ अध्याय
परीक्षित्! बाणासुर की एक कन्या थी, जिसका नाम था उषा। अभी वह कुमारी ही थी कि एक दिन स्वप्न में उसने देखा कि ‘परम सुन्दर अनिरुद्धजी के साथ मेरा समागम हो रहा है।’ आश्चर्य की बात तो यह थी कि उसने अनिरुद्ध जी को न तो कभी देखा था और न ही सुना ही था । स्वप्न में ही उन्हें न देखकर वह बोल उठी—‘प्राणप्यारे! तुम कहाँ हो ?’ और उसकी नींद टूट गयी। वह अत्यन्त विह्वलता के साथ उठ बैठी और यह देखकर कि मैं सखियों के बीच में हूँ, बहुत ही लज्जित हुई। परीक्षित्! बाणासुर के मन्त्री का नाम था कुम्भाण्ड। उसकी एक कन्या थी, जिसका नाम था चित्रलेखा। उषा और चित्रलेखा एक-दूसरे की सहेलियाँ थीं। चित्रलेखा ने उषा से कौतूहलवश पूछा— ‘सुन्दरी! राजकुमारी! मैं देखती हूँ कि अभी तक किसी ने तुम्हारा पाणिग्रहण भी नहीं किया है। फिर तुम किसे ढूँढ रही हो और तुम्हारे मनोरथ का क्या स्वरूप है ?’ उषा ने कहा—सखी! मैंने स्वप्न में एक बहुत ही सुन्दर नवयुवक को देखा है। उसके शरीर का रंग साँवला-साँवला-सा है। नेत्र कमलदल के समान हैं। शरीर पर पीला-पीला पीताम्बर फहरा रहा है। भुजाएँ लम्बी-लम्बी हैं और वह स्त्रियों का चित्त चुराने वाला हैं। उसने पहले तो अपने अधरों का मधुर मधु मुझे पिलाया, परन्तु मैं उसे अघाकर पी ही न पायी थी कि वह मुझे दुःख के सागर में डालकर न जाने कहाँ चला गया। मैं तरसती ही रह गयी। सखी! मैं अपने उसी प्राणवल्लभ को ढूँढ रही हूँ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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