गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
दसवाँ प्रकरण
इससे सिद्ध होता है कि परब्रह्म और उसी का अंश शरीर आत्मा, दोनों मूल में स्वतन्त्र अर्थात कर्मात्मक प्रकृति की सत्ता से मुक्त हैं। इनमें से परमात्मा के विषय में जिन मनुष्य को इससे अधिक ज्ञान नही हो सकता कि वह अनन्त, सर्वव्यापी, नित्य शुद्ध और मुक्त है। परन्तु इस परमात्मा ही के अंश-रूप जीवात्मा की बात भिन्न है; यद्यपि वह मूल मे शुद्ध, मुक्तस्वभाव, निर्गुण तथा अकर्ता है, तथापि शरीर और बुद्धि आदि इन्द्रियों के बन्धनों में फंस जाने के कारण जब वह मनुष्य के मन में स्फूर्ति उत्पन्न करता है तब मनुष्य को उसका प्रत्यक्षानुभवरूपी ज्ञान हो सकता है। भाफ का उदाहरण लिजिये, जब वह खुली जगह में रहती है तब उसका कुछ जोर नहीं चलता; परन्तु जब वह किसी बर्तन में बंद कर दी जाती है तब उसका दबाव उस बर्तन पर जोर से पड़ने लगता है; ठीक इसी प्रकार जब परमात्मा का ही अंशभूत जीव[1] अनादि पूर्व-कर्मार्जित जड़ देह तथा इद्रिंयो के बन्धनों से बन्द हो जाता है, तब इस बद्धावस्था से उसको मुक्त करने के लिये ( मोक्षानुकूल ) कर्म करने की प्रवृति देहेन्द्रियो में होने लगती है; और इसी को व्यावहारिक दृष्टि से ‘’ आत्मा की स्वतन्त्र प्रवृति‘’ कहते हैं । ‘’व्यावहारिक दृष्टि से ‘’ कहने का कारण यह है कि शुद्ध मुक्तावस्था में या ‘’तात्विक दृष्टि से‘’ आत्मा इच्छा-रहित तथा अकर्ता है– सब कर्तत्व केवल प्रकृति का है[2]। परन्तु वेदान्ती लोग सांख्य-मत की भाँति यह नहीं मानते कि प्रकृति ही स्वयं मोक्षानुकुल कर्म किया करती है; क्योंकि ऐसा मान लेने से यह कहना पड़ेगा कि जड़ प्रकृति अपने अंधेपन से अज्ञानियों को भी मुक्त कर दे सकती है। और, यह भी नहीं कहा जा सकता कि जो आत्मा मूल ही में अकर्ता है, वह स्वतन्त्र रीति से अर्थात बिना किसी निमित्त कारण के अपने नैसर्गिक गुणों से ही प्रवर्तक हो जाता है। इसलिये आत्म–स्वातन्त्रय के उक्त सिद्धांत को वेदान्तशास्त्र में कुछ ऐसे शब्दों से बतलाना पड़ता है, कि आत्मा यद्यपि मूल में अकर्ता है तथापि बन्धनों के निमित्त से वह इतने ही के लिये दिखाऊ प्रेरक बन जाता है, और जब यह आगन्तुक प्रेरकता उसमें एक बार किसी भी निमित्त से आ जाती है, तब वह कर्म के नियमों से भिन्न अर्थात स्वतन्त्र ही रहती है। ‘’स्वतन्त्र‘’ का अर्थ निर्निमित्तक नहीं है, और आत्मा अपनी मूल शुद्धावस्था में कर्ता ही नही रहता। परन्तु बार बार इस लम्बी चौड़ी कर्म-कथा को न बतलाते रह कर इसी को संक्षेप में आत्मा की स्वतन्त्र प्रवृति या प्रेरणा कहने की परिपाटी हो गई है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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