गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
दसवाँ प्रकरण
कर्म-बन्धन से छुटकारा होने के लिये कर्म को छोड़ देना कोई उचित मार्ग नहीं है, किन्तु ब्रह्मात्मैक्य-ज्ञान से बुद्धि को शुद्ध करके परमेश्वर के समान आचरण करते रहने से ही अन्त में मोक्ष मिलता है; कर्म को छोड़ देना भ्रम है क्योंकि कर्म किसी से छूट नहीं सकता; - इत्यादि बातें यद्यपि निर्विवाद सिद्ध हो गई हैं; तथापि यह पहले का प्रश्न फिर भी उठता है कि, क्या इस मार्ग में सफलता पाने के लिये आवश्यक ज्ञान-प्राप्ति को जो प्रयत्न करना पड़ता है वह मनुष्य के वश में है। अथवा नाम-रूप कर्मात्मक प्रकृति जिधर खींचे उधर ही उसे चले जाना चाहिये। भगवान गीता में कहते हैं कि ‘’ प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रह: किं करिष्यति ‘’[1]– निग्रह से क्या होगा? प्राणिमात्र अपनी अपनी प्रकृति के अनुसार ही चलते है; ‘’मिथ्यैष व्यवसायस्ते प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति‘’– तेरा निश्चय व्यर्थ है; जिधर तू न चाहेगा उधर तेरी प्रकृति तुझे खींच लेगी[2]; और मनुजी कहते हैं कि ‘’बलवान् इन्द्रियग्रामो विद्वांसमपि कर्षति ‘’[3]– विद्वानों को भी इन्द्रियां अपने वश मे कर लेती हैं। कर्मविपाक प्रक्रिया का भी निष्कर्ष यही है क्योंकि जब ऐसा मान लिया जाय कि मनुष्य के मन की सब प्रेरणाएं पूर्व-कर्मों से ही उत्पन्न होती हैं, तब तो यही अनुमान करना पड़ता है कि उसे एक कर्म से दूसरे कर्म में अर्थात सदैव भव-चक्र में घूमते रहना चाहिये। अधिक क्या कहें, कर्म से छुटकारा पाने की प्रेरणा और कर्म, दोनों बातें परस्पर-विरुद्ध हैं। और यदि यह सत्य है, तो यह आपत्ति आ पड़ती है कि ज्ञान प्राप्त करने के लिये कोई भी मनुष्य स्वतन्त्र नहीं है। इस विषय का विचार अध्यात्मशास्त्र में इस प्रकार किया गया है, कि नाम-रूपात्मक सारी दृश्य-सृष्टि का आधारभूत जो तत्व है वही मनुष्य की जड़देह में भी निवास करता है, इससे उसके कृत्यों का विचार देह और आत्मा दोनों ही दृष्टि से करना चाहिये। इनमें से आत्मस्वरूपी ब्रह्म मूल में केवल एक ही होने के कारण कभी भी परतन्त्र नहीं हो सकता; क्योंकि किसी एक वस्तु को दूसरे की अधीनता में होने के लिये एक से अधिक–कम से कम दो–वस्तुओं का होना नितान्त आवश्यक है। यहाँ नाम-रूपात्मक कर्म ही वह दूसरी वस्तु है; परन्तु यह कर्म अनित्य है और मूल में परब्रह्म ही की लीला है जिससे र्निविवाद सिद्ध होता है कि, यद्यपि उसने परब्रह्म के एक अंश को आच्छादित कर लिया है, तथापि वह परब्रह्म को अपना दास कभी भी बना नहीं सकता। इसके अतिरिक्त पहले यह भी बतलाया जा चुका है, कि जो आत्मा कर्म-सृष्टि के व्यापारों का एकीकरण करके सृष्टि ज्ञान उत्पन्न करता है, उसे कम-सृष्टि से भिन्न अर्थात ब्रह्म-सृष्टि का ही होना चाहिये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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