कैसे लूँ मैं नाम तुम्हारा -हनुमान प्रसाद पोद्दार

पद रत्नाकर -हनुमान प्रसाद पोद्दार

वंदना एवं प्रार्थना

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राग परज - ताल कहरवा


कैसे लूँ मैं नाम तुम्हारा, कैसे करूँ सुखद विस्तार।
ढका रहे वह, यही चाहता मैं, ‘हो मेरा नाम-प्रचार’॥
कहता हूँ-’मैं नाम तुम्हारा ही हूँ रात-दिवस गाता।’
पर उसकी ले आड़, नाम नित अपना ही मैं फैलाता!।
ढककर ऋषि-मुनियों की और तुम्हारी भी वाणी को नित्य।
अपनी वाणी को कर आगे, उसे बताता हूँ ध्रुव सत्य॥
काट तुम्हारी लिखी पङ्‌‌क्तियाँ, उनपर अपनी लिखता बात।
अपने लेखन-कौशल की महिमा से मानो करता घात॥
करके नीचे नाम सभी के, रखता ऊँचा अपना नाम।
शोभा हर औरों की, खूब सजाता अपने को बेकाम॥
सबके सुरको दबा, सहज मैं बजना स्वयं चाहता आप।
इसीलिये सबकी निन्दा कर मिथ्या नित्य बढ़ाता पाप॥
हर लो नामजनित यह मेरी भीषणतम विपत्ति को नाथ!
अब इस नाम-मोह से तुरत बचा लो, स्वयं बढ़ाकर हाथ॥
ड्डैले मेरे जीवन से फिर जग में सत्य तुम्हारा नाम।
इससे जीवों के सँग मैं भी पहुचूँ परम तुम्हारे धाम॥

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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