"प्रेम सत्संग सुधा माला पृ. 35" के अवतरणों में अंतर

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जबलोगों ने बहुत कहा-‘महाराज! बहुत भारी महात्मा आ रहे हैं, अगवानी के लिये चले चलिये।’ तब ज्ञानदेवजी ने कहा-‘ठीक है।’ फिर दीवाल से बोले-‘री दीवाल! तू चल।’ कहने की देर थी कि वह दीवाल जमीन से उखड़कर चल पड़ी। चाँगदेव ने देखा-‘बाप रे! आज तक योग के द्वारा मैं चेतन प्राणी को ही वश में करके इच्छानुसार नचा सकता था, पर यह तो जड़ पर शासन करता है।’ उसी क्षण अभिमान टूट गया और चरणों में जा गिरे। उसी समय 64(अभंग) छन्दों में उन्हें ज्ञानदेवजी ने उपदेश दिया तथा रामनाम की महिमा बतायीकि भगवान् के नाम के सामने ये सभी बातें तुच्छ हैं। फिर उनकी छोटी बहिन ने उन्हें दीक्षा दी, तब उन्हें भगवान् की प्राप्ति हुई।
 
जबलोगों ने बहुत कहा-‘महाराज! बहुत भारी महात्मा आ रहे हैं, अगवानी के लिये चले चलिये।’ तब ज्ञानदेवजी ने कहा-‘ठीक है।’ फिर दीवाल से बोले-‘री दीवाल! तू चल।’ कहने की देर थी कि वह दीवाल जमीन से उखड़कर चल पड़ी। चाँगदेव ने देखा-‘बाप रे! आज तक योग के द्वारा मैं चेतन प्राणी को ही वश में करके इच्छानुसार नचा सकता था, पर यह तो जड़ पर शासन करता है।’ उसी क्षण अभिमान टूट गया और चरणों में जा गिरे। उसी समय 64(अभंग) छन्दों में उन्हें ज्ञानदेवजी ने उपदेश दिया तथा रामनाम की महिमा बतायीकि भगवान् के नाम के सामने ये सभी बातें तुच्छ हैं। फिर उनकी छोटी बहिन ने उन्हें दीक्षा दी, तब उन्हें भगवान् की प्राप्ति हुई।
  
असली संतों की पहचान किसी बाहरी चेष्टा से नहीं हो सकती। एकसाँई बाबा थे (उनको लोग रजाई ओढ़ा देते। साथ में कुत्ता आता, वे रजाई से खिसकते-खिसकते बाहर हो जाते। अब इस चेष्टा से ही किसी को भगवत्प्राप्त मान लेना नहीं बनता। साँई बाबा की बात नहीं है। उनके विषय में तो एक विश्वस्त सूत्र से मैंने सुना है कि वे भगवत्प्राप्त पुरुष थे।यद्यपि मैं निश्चयपूर्वक कुछ नहीं जानता। पर ऐसी चेष्टा देखकर किसी को भगवत्प्राप्त मान लेना भूल है।) संत का असली स्वरुप इससे अत्यन्त विलक्षण है। [[वृन्दावन]] में ग्वारीयाबाबा थे, कुछ ही वर्ष पहले शरीर छूटा है, उनका विचित्र ढंग था। वे अपने को श्यामसुन्दर का सखा मानते थे और सचमुच थे भी। उनकी विचित्र-विचित्र बातें आती हैं। दिनभर पता नहीं कहाँ-कहाँ घूमते रहते थे। एक दिन रास्ते में पड़े थे। रात्रि का समय था। कई चोर उस रास्ते में जा रहे थे। चोरों ने पूछा-‘कौन हो?’ वे बोले-‘तुम कौन हो?’ उन सबने कहा-‘हम तो चोर हैं।’ इन्होने कहा-‘हम भी चोर हैं।’ उन्होंने कहा-‘चलो, तब चोरी करें।’ इन्होने कहा-‘चलो।’ सब एक व्रजवासी के घर में चोरी करने घुसे। वे सब तो चोर थे ही, उन सबने सामान बाँधना आरम्भ किया। ये कुछ देर तो खड़े रहे। फिर वहीं एक ढोलक पड़ी थी।
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असली संतों की पहचान किसी बाहरी चेष्टा से नहीं हो सकती। एकसाँई बाबा थे (उनको लोग रजाई ओढ़ा देते। साथ में कुत्ता आता, वे रजाई से खिसकते-खिसकते बाहर हो जाते। अब इस चेष्टा से ही किसी को भगवत्प्राप्त मान लेना नहीं बनता। साँई बाबा की बात नहीं है। उनके विषय में तो एक विश्वस्त सूत्र से मैंने सुना है कि वे भगवत्प्राप्त पुरुष थे।यद्यपि मैं निश्चयपूर्वक कुछ नहीं जानता। पर ऐसी चेष्टा देखकर किसी को भगवत्प्राप्त मान लेना भूल है।) संत का असली स्वरुप इससे अत्यन्त विलक्षण है। [[वृन्दावन]] में ग्वारीयाबाबा थे, कुछ ही वर्ष पहले शरीर छूटा है, उनका विचित्र ढंग था। वे अपने को श्यामसुन्दर का सखा मानते थे और सचमुच थे भी। उनकी विचित्र-विचित्र बातें आती हैं। दिनभर पता नहीं कहाँ-कहाँ घूमते रहते थे। एक दिन रास्ते में पड़े थे। रात्रि का समय था। कई चोर उस रास्ते में जा रहे थे। चोरों ने पूछा-‘कौन हो?’ वे बोले-‘तुम कौन हो?’ उन सबने कहा-‘हम तो चोर हैं।’ इन्होंने कहा-‘हम भी चोर हैं।’ उन्होंने कहा-‘चलो, तब चोरी करें।’ इन्होंने कहा-‘चलो।’ सब एक व्रजवासी के घर में चोरी करने घुसे। वे सब तो चोर थे ही, उन सबने सामान बाँधना आरम्भ किया। ये कुछ देर तो खड़े रहे। फिर वहीं एक ढोलक पड़ी थी।
  
 
| style="vertical-align:bottom;"| [[चित्र:Next.png|right|link=प्रेम सत्संग सुधा माला पृ. 36]]           
 
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01:02, 28 अप्रॅल 2018 के समय का अवतरण

प्रेम सत्संग सुधा माला

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जबलोगों ने बहुत कहा-‘महाराज! बहुत भारी महात्मा आ रहे हैं, अगवानी के लिये चले चलिये।’ तब ज्ञानदेवजी ने कहा-‘ठीक है।’ फिर दीवाल से बोले-‘री दीवाल! तू चल।’ कहने की देर थी कि वह दीवाल जमीन से उखड़कर चल पड़ी। चाँगदेव ने देखा-‘बाप रे! आज तक योग के द्वारा मैं चेतन प्राणी को ही वश में करके इच्छानुसार नचा सकता था, पर यह तो जड़ पर शासन करता है।’ उसी क्षण अभिमान टूट गया और चरणों में जा गिरे। उसी समय 64(अभंग) छन्दों में उन्हें ज्ञानदेवजी ने उपदेश दिया तथा रामनाम की महिमा बतायीकि भगवान् के नाम के सामने ये सभी बातें तुच्छ हैं। फिर उनकी छोटी बहिन ने उन्हें दीक्षा दी, तब उन्हें भगवान् की प्राप्ति हुई।

असली संतों की पहचान किसी बाहरी चेष्टा से नहीं हो सकती। एकसाँई बाबा थे (उनको लोग रजाई ओढ़ा देते। साथ में कुत्ता आता, वे रजाई से खिसकते-खिसकते बाहर हो जाते। अब इस चेष्टा से ही किसी को भगवत्प्राप्त मान लेना नहीं बनता। साँई बाबा की बात नहीं है। उनके विषय में तो एक विश्वस्त सूत्र से मैंने सुना है कि वे भगवत्प्राप्त पुरुष थे।यद्यपि मैं निश्चयपूर्वक कुछ नहीं जानता। पर ऐसी चेष्टा देखकर किसी को भगवत्प्राप्त मान लेना भूल है।) संत का असली स्वरुप इससे अत्यन्त विलक्षण है। वृन्दावन में ग्वारीयाबाबा थे, कुछ ही वर्ष पहले शरीर छूटा है, उनका विचित्र ढंग था। वे अपने को श्यामसुन्दर का सखा मानते थे और सचमुच थे भी। उनकी विचित्र-विचित्र बातें आती हैं। दिनभर पता नहीं कहाँ-कहाँ घूमते रहते थे। एक दिन रास्ते में पड़े थे। रात्रि का समय था। कई चोर उस रास्ते में जा रहे थे। चोरों ने पूछा-‘कौन हो?’ वे बोले-‘तुम कौन हो?’ उन सबने कहा-‘हम तो चोर हैं।’ इन्होंने कहा-‘हम भी चोर हैं।’ उन्होंने कहा-‘चलो, तब चोरी करें।’ इन्होंने कहा-‘चलो।’ सब एक व्रजवासी के घर में चोरी करने घुसे। वे सब तो चोर थे ही, उन सबने सामान बाँधना आरम्भ किया। ये कुछ देर तो खड़े रहे। फिर वहीं एक ढोलक पड़ी थी।

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