प्रेम सत्संग सुधा माला पृ. 36

प्रेम सत्संग सुधा माला

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उसे लगे जोर से ढम-ढमा-ढम बजाने। घर के आदमी जाग गये। वे सब तो भागे, पर ये ढोलक बजाते रहे। घरवालों ने आकर चार-पाँच डंडे बाबा को लगाये। अन्धकार था। रोशनी जलायी तो देखा कि ग्वारीयाबाबा हैं। उनसबको बड़ा दुःख हुआ कि महात्मा को डंडे मार दिये। पूछा-‘बाबा! तुम कैसे आये?’ बोले-‘चोरी करबे ताँई आये।’ उन सबने पूछा-‘और कौन-कौन हते?’ बोले-‘श्यामसुन्दर के सखा सब हते।’ अब देखिये, इन लोगों की कैसी चेष्टाएँ होती हैं।

ग्वारियाबाबा मरने के कुछ दिन पहले बोले-‘अब नोटिस आय गयी है, अब नहीं रहूँगो।’ मरने के दो दिन बाद वहाँ से कुछ दूर एक भक्त था, उसके यहाँ गये और दूध पीया। बाबा का एक भक्त था, बड़ा बीमार था। रोने लगा कि ‘बाबा, या तो अच्छा कर दो या अब पास में बुला लो। स्वप्न में आये। मरने के दूसरे दिन की यह बात है। उससे कहा-‘रोते क्यों हो? चल, हमारा उत्सव मनाया जा रहा है; देख।’ फिर स्वप्न में ही उसे ले गये। जो-जो था, दिखलाया। फिर कहा-‘अमुक दिन तुम्हें ले जायँगे।’ नींद खुलने पर उसने जाँच की। ठीक-ठीक जैसे उत्सव हुआ था, वैसे ही उसने स्वप्न में देखा था और फिर उसी बतायी हुई तिथि को मर गया।

उनकी ऐसी-ऐसी विलक्षण बातें हैं कि सबका समझना कठिन हो जाता है। पर वे थे सचमुच श्यामसुन्दर के सखा। सच्चे महात्मा थे। उनकी कई चेष्टाओं का कुछ भी अर्थ नहीं लगता था। दो महीने मरने के पहले हाथों में हथकड़ी डालकर घूमते रहते थे कि श्यामसुन्दर ने कैद कर दिया है। बड़े भारी संगीतज्ञ थे। कहने का सारांश यह है कि बाहरी चेष्टा भगवत्प्राप्ति का प्रमाण नहीं बन सकती। बहुत ऊँची चेष्टा करने वाले में भी त्रुटि रह सकती है तथा कोई बावला-सा नगण्य व्यक्ति भी बहुत बड़ा महात्मा हो सकता है।

व्रज के प्रेमी संतों का जीवन सुनने पर तो ऐसा मालूम होगा कि कोई रोते हैं, कोई हँसते हैं, कोई पागल हैं। कितनों में बाहर से कुछ भी प्रेम के लक्षण नहीं दीखते, पर उनके भीतर श्रीकृष्ण-प्रेम का अनन्त सागर लहराता रहता है। इन प्रेमी संतों की पहचान बाहर से हो ही नहीं सकती।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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