श्रीकृष्ण माधुरी पृ. 136

श्रीकृष्ण माधुरी -सूरदास

अनुवादक - सुदर्शन सिंह

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राग नट

123
नैननि ध्यान नंदकुमार।
सीस मुकुट सिखंड भ्राजत नाहिं उपमा पार ॥1॥
कुटिल केस सुदेस राजत मनौ मधुकर जाल।
रुचिर केसर तिलक दीन्हे परम सोभा भाल ॥2॥
भृकुटि बंकट चारु लोचन रहीं जुबती देखि।
मनौ खंजन चाप डर डरि उडत नहि नहि तिहि पेखि ॥3॥
मकर कुंडल गंड झलमल निरखि लज्जित काम।
नासिका छबि कीर लज्जित कबिन बरनत नाम ॥4॥
अधर बिद्रुम दसन दाडिम चिबुक है चितचोर।
सूर प्रभु मुख चंद पूरन नारि नैन चकोर ॥5॥

( सखी कहती है- ) नेत्रों मे नन्दकुमार का ( यह ) ध्यान है- ( उनके ) मस्तक पर मयूरपिच्छ का मुकुट शोभा दे रहा है जिसकी उपमा कही नही है । घुँघराले केश मनोहर रुपमे ऐसे शोभा देते है मानो भौंरे का झुंड हो । सुन्दर केसर का तिलक लगाये है जिससे ललाट की बडी शोभा हो रही है । टेढी भौंहे है सुन्दर नेत्र है जिन्हे ( व्रज की ) युवतियाँ देख रही है मानो ( नेत्ररुपी ) खञ्जन ( भौंहेरुप ) धनुष को देखकर उसके भयसे भयभीत हुए उडते नही हो । मकराकृत कुण्डल गण्डस्थल पर झलमला रहे है जिन्हे देखकर काम ( भी ) लजा जाता है; नाक की शोभा देखकर तोता ( भी ) लज्जित होता है कि ( मै इतना सुन्दर कहाँ हूँ ) जो कविगण मेरा नाम लेकर इसकी उपमा का वर्णन करते है । ओठ मूँग के समान तथा दाँत अनार के दानों की भाँति है और ठुड्डी तो चित्त को चुराये लेती है । सूरदासजी कहते है- मेरे स्वामीका मुख पूर्णिमाका चंद्रमा है ( ओर व्रज की ) स्त्रियों के नेत्र चकोर है ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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