श्रीकृष्ण माधुरी पृ. 137

श्रीकृष्ण माधुरी -सूरदास

अनुवादक - सुदर्शन सिंह

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राग केदारौ

124
प्यारे नँदलाल हो। मोही तेरी चाल हो ॥
मोर मुकुट डोलनि मुख मुरली कल मंद।
मनु तमाल सिखा सिखी नाचत आनंद ॥1॥
मकराकृत कुंडल छबि राजत सुकपोल।
ईषद मुसुकानि बीच मंद मंद बोल ॥2॥
चितवनि चख अतिहि चपल राजति भ्रुव भंग।
धनुष बान डारि होत कोटि बस अनंग ॥3॥
बदन सुधा कौ सरबर कुटिल अलक पारि।
ब्रज जुबती मृगिनि रची तिन कौं फँदवारि ॥4॥
पीतांबर छबि निरखत दामिनिहु लजाइ।
चमकि चमकि सावन घन मैं सो दुरि जाइ ॥5॥
चरन कमल अवलंबित राजति बनमाल।
प्रफुलित ह्वै लता मनौ चढी तरु तमाल ॥6॥
सूरदास वा छबि पै वारौं तन प्रान।
गिरधर पिय देखि देखि का करौं अनुमान ॥7॥

( गोपी कह रही है- ) हे प्यारे नन्दलाल ! तुम्हारी चालपर मैं मुग्ध हो गयी हूँ । मन्द-मधुर मुरली के सुन्दर शब्द के साथ मयूरपिच्छ के मुकुट का हिलना ऐसा लगता है मानो तमाल-वृक्षकी चोटीपर आनन्दपूर्वक मयूर नाच रहा हो । सुन्दर कपोलों पर मकराकृत कुण्डलोंकी झलमलाहट शोभा दे रही है; मन्द मुस्कान है और बीच मे धीरे-धीरे बोलते भी है । देखने की भंगी और नेत्र अत्यन्त चञ्चल है । टेढी भौंहे शोभा दे रही है ( जिन्हे देखकर ) करोडो कामदेव धनुष-बाण फेंककर वशमे हो जाते है । मुख अमृतका सरोवर है और घुँघराली अलके उसकी मेड ( कगारे ) है । व्रजयुवतीरुपी हरिणियोंके लिये वह फँसाने का जाल बनाया गया है । पीताम्बर की छटा देखकर विद्युत भी लज्जित होती है । ( और इसी से ) बार-बार चमककर श्रावण के बादलों मे छिप जाती है । चरण-कमल तक लटकती वनमाला शोभा दे रही है मानो तमाल-वृक्षपर चढी लता प्रफुल्लित हो रही हो । सूरदासजी कहते है कि इस शोभापर शरीर और प्राण न्योछावर कर दूँ । प्यारे गिरिधरकी शोभा अनुमान क्या करुँ ( इस अनुपमेयकी उपमा कैसे दूँ ) ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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