श्रीकृष्ण माधुरी पृ. 131

श्रीकृष्ण माधुरी -सूरदास

अनुवादक - सुदर्शन सिंह

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राग नट

118
निरखत रुप नागरि नारि।
मुकुट पै मन अटकि लटक्यौ जात नहिं निरवारि ॥1॥
स्याम तन की झलक आभा चंद्रिका झलकाइ।
बार बार बिलोकि थकि रहिं नैन नहिं ठहराइ ॥2॥
स्याम मरकत मनि महानग सिखा निरतत मोर।
देखि जलधर हरष उर मैं नाहिं आनँद थोर ॥3॥
कोउ कहति सुर चाप मानौ गगन भयौ प्रकास।
थकित ब्रज ललना जहाँ तहँ हरष कबहुँ उदास ॥4॥
निरखि जो जिहि अंग राँची तही रही भुलाइ।
सूर प्रभु गुन रासि सोभा रसिक जन सुखदाइ ॥5॥

चतुर नारियाँ ( मोहनका ) रुप देख रही है । ( उनका ) मन मुकुट पर अटक कर वही लटक गया ( स्थिर हो गया ) अब वहाँ से छुडाये नही छुटता । श्याम के शरीर की झलक ( प्रकाश ) मे चंद्रिका की आभा प्रतिबिम्बित हो रही है जिसे बार-बार देखकर वे मुग्ध हो रही है; किंतु नेत्र वहाँ ( चकाचौंध के मारे ) स्थिर नही होते । श्यामसुन्दर मरकत मणि के बडे पर्वत है और उनके मस्तक पर पिच्छ के रुपमे मानो मोर नाच रहा है जिसे देखकर जलधर ( बादल ) के हृदय मे आनन्द की सीमा नही है अत्यन्त हर्ष है । ( श्यामसुन्दरको इस भाँति देखकर ) कोई गोपी कहती है- मानो यह इन्द्रधनुष आकाश मे प्रकट हुआ है । व्रजकी स्त्रियाँ जहाँ-तहाँ ( स्थान-स्थानपर ) मुग्ध खडी कभी ( मोहनके पास आनेपर ) हर्षित और कभी ( दूर जानेपर ) उदास हो जाती है । जिसने जिस अंगको देखा वह वही अनुरक्त होकर आत्मविस्मृत हो रही । सूरदासजी कहते है- मेरे प्रभु गुणों एवं शोभा की राशि है और रसिकजनों को सुख देनेवाले है ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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