श्रीकृष्ण माधुरी पृ. 126

श्रीकृष्ण माधुरी -सूरदास

अनुवादक - सुदर्शन सिंह

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राग गूजरी

113
देखि री हरि के चंचल नैन।
खंजन मीन मृगज चपलाई नहिं पटतर इक सैन ॥1॥
राजिव दल इंदीबर सतदल कमल कुसेसय जाति।
निसि मुद्रित प्रातहि वे बिकसत ए बिकसित दिन राति ॥2॥
अरुन सेत स्मित झलक पलक प्रति को बरनै उपमाइ।
मनु सरसुति गंगा जमुना मिलि आस्त्रम कीन्हौ आइ ॥3॥
अवलोकनि जलधार तेज अति तहाँ न मन ठैराइ।
सूर स्याम लोचन अपार छबि उपमा सुनि सरमाइ ॥4॥

( गोपी कह रही है- ) अरी ! हरिके चञ्चल नेत्र देख जिनके एक संकेतकी भी तुलनाके योग्य खञ्जन मछली तथा मृगशावककी चपलता नही है । लाल कमल नील कमल सौ दलोंका कमल श्वेत कमल आदि जितनी भी जातियोंके कमल है वे रात्रिमें बन्द रहते है सबेरे ही खिलते है; किंतु वे हरिके ( नेत्र-कमल तो ) रात-दिन खिले रहते है । प्रत्येक बार पलक उठाते समय ( आपके नेत्रोंमे ) जो अरुणसित-सेत झलक दिखायी देती है उसे उपमा देकर वर्णन कौन करे । ऐसा लगता है मानो सरस्वती गंगा और यमुनाने ( यहाँ ) एकत्र होकर निवास बना लिया हो । देखनेकी भंगी अत्यंत तीव्र जलधारा है वहाँ मन स्थिर नही रह पाता । सूरदासजी कहते है कि श्यामसुन्दरके नेत्रोंकी शोभा अपार है उन्हे जो भी उपमा दी जाय वह अपनी चर्चा सुनकर स्वयं लजा जाती है ( कि कहाँ यह और कहाँ मैं ) ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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