श्रीकृष्ण माधुरी पृ. 120

श्रीकृष्ण माधुरी -सूरदास

अनुवादक - सुदर्शन सिंह

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राग आसावरी

107
स्याम हृदय जलसुत की माला
अतिहिं अनूपम छाजै ( री )।
मनौ बलाक पाँति नव घन पै
यह उपमा कछु भ्राजै ( री ) ॥1॥
पीत हरित सित अरुन माल बन
राजति हृदय बिसाल ( री )।
मानौ इंद्र धनुष नभ मंडल
प्रगट भयौ तिहिं काल ( री ) ॥2॥
भृगु पद चिह्न उरस्थल प्रगटे
कौस्तुभ मनि ढंग दरसत ( री )।
बैठे मानौ षट बिधु इक सँग
अर्द्ध निसा मिलि हरषत ( री ) ॥3॥
भुजा बिसाल स्याम सुंदर की
चंदन खौरि चढाए ( री )।
सूर सुभग अँग अँग की सोभा
ब्रज ललना ललचाए ( री ) ॥4॥

( गोपी कह रही है- ) सखी ! श्यामसुन्दरके वक्षःस्थलपर मोतियोंकी माला बडी ही अनुपम छटा दे रही है । मानो नवीन मेघपर बगुलोंकी पंक्ति हो यही उपमा कुछ फबती है । पीले हरे श्वेत लाल पुष्पोंकी वनमाला विशाल वक्षःस्थलपर ( ऐसी ) शोभित है मानो इसी समय आकाशमण्डलमे इन्द्रधनुष प्रकट हुआ हो । वक्षःस्थलपर ( पाचो अँगुलियोंसे युक्त ) भृगुका चरण-चिन्ह और पास ही कौस्तुभमणि दीख रहे है मानो छः चन्द्रमा मिलकर अर्धरात्रिमें एक साथ बैठे प्रसन्न हो रहे ( चकम रहे ) हों । श्यामसुन्दरकी विशाल ( लंबी ) भुजाओंपर चन्दनका लेप लगा है । सूरदासजी कहते है कि अपने अंग-प्रत्यंगकी शोभासे व्रजकी स्त्रियोंको ( उन्होंने ) ललचा दिया-मुग्ध कर लिया है ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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