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श्रीकृष्ण माधुरी -सूरदास
अनुवादक - सुदर्शन सिंह
राग कान्हरौ97 ( गोपी कह रही है- ) ’ सखी ! श्यामकी चञ्चल पुतलियाँ देख । कमल और मछलियोंमे इतनी शोभा कहाँ है खञ्जन भी इनके समान नही कहे जा सकते । क्षणभरके लिये देख ! वंशीपर झुके हुए हाथ मुख और नेत्र एक आधारपर लगे है मानो ( हाथरुपी ) कमल शत्रुता छोडकर ( मुखरुपी ) चन्द्रमासे मिल रहा हो और चन्द्रमा शब्द करता हुआ अपने वाहन ( नेत्ररुप मृग ) को पुचकार रहा हो । घुँघराली घनी मनोहर अलकोंपर एक अनुपम उपमा सूझती है मानो चन्द्रमाने अपने रथके मृगोको डरकर बिदकते ( चौंकते ) देख और आशंकित होकर ( कि ये भाग न खडे हो ) जाल फैला दिया हो । ’ हरिके प्रत्येक अंगको देख और उसपर मुग्ध होकर व्रजकी स्त्रियोंने प्राणरुपी धन न्योछावर कर दिया । सूरदासजी कहते है कि श्यामका मुख देखकर वे आनन्दमग्न हो गयी उनका चित्त उसीके चिन्तनमे डूब गया वहाँसे हटाये नही हटता । |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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