श्रीकृष्ण माधुरी पृ. 110

श्रीकृष्ण माधुरी -सूरदास

अनुवादक - सुदर्शन सिंह

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राग कान्हरौ

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देखि री ! हरि के चंचल तारे।
कमल मीन कौ कहँ एती छबि
खंजनहू न जात अनुहारे ॥1॥
वह लखि निमिष नवत मुरली पर
कर मुख नैन भए इकचारे।
मनु जलरुह तजि बैर मिलत बिधु
करत नाद बाहन चुचुकारे ॥2॥
उपमा एक अनुपम उपजति
कुंचित अलक मनोहर भारे।
बिडरत बिझुकि जानि रथ तैं मृग
जनु ससंकि ससि लंगर सारे ॥3॥
हरि प्रति अंग बिलोकि मानि रुचि
व्रज बनितानि प्रान धन वारे।
सूर स्याम मुख निरखि मगन भइँ
यह बिचारि चित अनत न टारे ॥4॥

( गोपी कह रही है- ) ’ सखी ! श्यामकी चञ्चल पुतलियाँ देख । कमल और मछलियोंमे इतनी शोभा कहाँ है खञ्जन भी इनके समान नही कहे जा सकते । क्षणभरके लिये देख ! वंशीपर झुके हुए हाथ मुख और नेत्र एक आधारपर लगे है मानो ( हाथरुपी ) कमल शत्रुता छोडकर ( मुखरुपी ) चन्द्रमासे मिल रहा हो और चन्द्रमा शब्द करता हुआ अपने वाहन ( नेत्ररुप मृग ) को पुचकार रहा हो । घुँघराली घनी मनोहर अलकोंपर एक अनुपम उपमा सूझती है मानो चन्द्रमाने अपने रथके मृगोको डरकर बिदकते ( चौंकते ) देख और आशंकित होकर ( कि ये भाग न खडे हो ) जाल फैला दिया हो । ’ हरिके प्रत्येक अंगको देख और उसपर मुग्ध होकर व्रजकी स्त्रियोंने प्राणरुपी धन न्योछावर कर दिया । सूरदासजी कहते है कि श्यामका मुख देखकर वे आनन्दमग्न हो गयी उनका चित्त उसीके चिन्तनमे डूब गया वहाँसे हटाये नही हटता ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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