श्रीकृष्ण माधुरी पृ. 111

श्रीकृष्ण माधुरी -सूरदास

अनुवादक - सुदर्शन सिंह

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राग सोरठ

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हरि मुख निरखत नैन भुलाने।
ए मधुकर रुचि पंकज लोभी ताहि तैं न उडाने ॥1॥
कुंडल मकर कपोलनि के ढिंग जनु रबि रैनि बिहाने।
भ्रुव सुंदर नैननि गति निरखत खंजन मीन लजाने ॥2॥
अरुन अधर दुज कोटि बज्र दुति ससि घन रुप समाने।
कुंचित अलक सिलीमुख मिलि मनु लै मकरंद उडाने ॥3॥
तिलक ललाट कंठ मुकुतावलि भूषन मनियन साने।
सूर स्याम रस निधि नागर के क्यों गुन जात बखाने ॥4॥

( गोपी कहती है- ) श्रीहरिका मुख देखकर नेत्र ( अन्यत्र हटना ) भूल गये है । ये कमल-रसके लोभी भ्रमर है इसीसे ( मुखकमलसे ) उडते नही । कपोलोंके पास मकराकृत कुण्डल ऐसे लगते है मानो रात्रि बीतनेपर सूर्य उगे हो । सुन्दर भौंहेकी मटकन तथा नेत्रोंकी गति देखकर खञ्जन और मछलियाँ भी लज्जित हो जाती है । लाल-लाल ओठ है; करोडो हीरोंके समान प्रभायुक्त दाँत है जिन्हे देख ( लज्जित हो ) कर चन्द्रमा बादलोंमे छिप गया है और घुँघराली अलके ऐसी है मानो भौंरेंका झुंड एकत्र होकर पुष्परस लेकर उड रहा हो । ललाटपर तिलक है गलेमे मोतियोंकी लडी है मणिजटित आभूषण है । सूरदासजी कहते है- ( ऐसे ) रसके निधान चतुरचुडामणि श्यामसुन्दरके गुण भला ( कोई ) कैसे वर्णन कर सकता है ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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