श्रीकृष्ण माधुरी पृ. 100

श्रीकृष्ण माधुरी -सूरदास

अनुवादक - सुदर्शन सिंह

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राग बिलावल

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बने बिसाल कमल दल नैन।
ताहू मैं अति चारु बिलोकनि
गूढ भाव सूचति सखि सैन ॥1॥
बदन सरोज निकट कुंचित कच
मनौ मधुप आए मधु लैन।
तिलक तरुन ससि कहत कछुक हँसि
बोलत मधुर मनोहर बैन ॥2॥
मदन नृपति कौ देस महा मद
बुधि बल बसि न सकत उर चैन।
सूरदास प्रभु दूत दिनहिं दिन
पठवत चरित चुनौती दैन ॥3॥

( गोपी कहती है- ) बडे-बडे नेत्र कमलदलके ( कमलकी पंखुडीके ) समान सजे है । सखी ! उसमे भी देखनेकी अत्यन्त सुन्दर भंगी ( रीति ) संकेतसे गूढ भाव सूचित करनेवाली है । कमलके समान मुखके चारो ओर घुँघराले बाल ऐसे लगते है मानो भौंरे मधु लेने आये हो । पूर्ण चन्द्रमाके समान तिलक लगा है हँसकर कुछ कह रहे है और मनोहर वचन बोल रहे है । ( इनका यह रुप तो ) मानो महान गर्विष्ठ कामदेवरुपी राजाका देश है; (जहाँ) अपने बुद्धि-बलसे ( विचार करके भी ) हृदयकी शान्ति नही बस सकती ( इन्हे देखकर चित चञ्चल हुए बिना रह नही सकता ) । सूरदासके स्वामी ( इतनेपर भी ) अपने चरितरुपी दूत दिनोंदिन ( रोज-रोज ) चुनौती देने भेज देते है । ऐसे-ऐसे चरित करते है मानो चुनौती दे रहे है कि देखे कौन कबतक धैर्य रख सकता है और मोहित नही होता ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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