प्रेम सत्संग सुधा माला
सर्वथा श्रीकृष्ण की कृपा से जो साधना में प्रवृत्त होता है, वही अनुभव करके निहाल होता है, अन्यथा कोई भी उपाय नहीं है। खूब सोच लें, यह दृढ़ सिद्धान्त मान लें- समस्त जागतिक आसक्ति मिटाकर, समस्त आश्रय त्यागकर श्रीकृष्ण को पकड़ना होगा, केवल तभी इस लीला का उन्मेष सम्भव है। नहीं तो ब्रम्ह-प्राप्त पुरुषों में भी इसका उन्मेष हो ही, यह नियम नहीं है। 65- जितनी चीजें आप देखते हैं, जो आपको प्यारी लगती हैं, जो भाव आपको प्यारा लगता है, यहाँ इस राज्य के सम्बन्ध से तोड़कर उसे दिव्य राज्य से जोड़ दीजिये। सुन्दर-से-सुन्दर बगीचा देखा है, कुंज देखी है, उसी के आधार पर उसमें दिव्यता का भाव करके, उसका वृन्दावन-कुंज के रूप में चिन्तन कीजिये। आपके मन में बढ़िया-से-बढ़िया घड़े की जो कल्पना हो, उसका मानसिक चित्र खींचकर उससे श्रीकृष्ण का हाथ धुलाना है- यह समझकर उस कलशे का ध्यान कीजिये। इसी प्रकार जिस लीला का भी वर्णन पढ़ते हैं, उसके प्रत्येक वाक्य में एक-एक, दो-दो चीजों का उल्लेख मिलेगा, जिन्हें आपने देखा है। बस, उन्हीं का चिन्तन कीजिये। एक से मन उचटते ही दूसरे से जोड़ दीजिये। जिस प्रकार से भी हो, मन को उसी राज्य की किसी वस्तु से जोड़े रहिये। फिर निश्चय मानिये कि उसी को निमित्त बनाकर श्रीकृष्ण के दिव्य राज्य में प्रवेशाधिकार मिल जायगा। मन टिकते ही इस भ्रान्तिमय राज्य की निवृत्ति हो जायगी और फिर ठीक उसी जगह सत्य वस्तु, जो पहले से ही है, निरन्तर है; प्रकाशित हो जायगी। पूरी चेष्टा करके मन को इस जगत् से निकालकर यहीं पर चलती हुई लीला में परम रमणीय रूप में, वृक्ष, बासन, साड़ी, पगड़ी आदि में जोड़ दें; फिर निश्चय अभूतपूर्व शान्ति का अनुभव होगा। अभी मन दिन-रात चिन्तन करता है कलकत्ता, बम्बई, पेटी, तिजोरी, कागज, पेंसिल, गली, सड़क, यहाँ के बासन, यहाँ के कपड़ों का। इनके बदले उसे वृन्दावनीय पदार्थों में जोड़िये। यही करना है, बस, इतना ही करना है। फिर भगवान् की कृपा का समुद्र उथलकर आपके सामने असली वस्तु को प्रकट कर देगा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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