प्रेम सत्संग सुधा माला पृ. 80

प्रेम सत्संग सुधा माला

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66- भगवान् की समस्त लीलाओं का आधार (मूल) एकमात्र श्रीराधिकाजी ही हैं। ये स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण ह्लादिनी शक्ति हैं। स्वरूपा शक्ति हैं। ये ही अनन्त रूप धारण करके श्रीकृष्णलीला का सामंजस्य करती हैं। श्रीराधाजी की प्रेम-लीला इतनी ऊँची है कि वस्तुतः वे जिसे कृपा करके कुछ दिखाना चाहें वही देख सकता है, दूसरा कोई उपाय नहीं है। वे आज भी हैं और भावना के अनुसार जैसी भी इच्छा कीजियेगा, वैसी ही उसी क्षण उस इच्छा की पूर्ति कर सकती हैं। जो श्रीकृष्ण हैं, वे ही राधा हैं। इनमें तनिक भी, रत्ती भर भी किसी भी प्रकार का अन्तर नहीं है। एक सच्ची घटना सुनाता हूँ, व्रज में हुई थी।

तीन महात्मा घूम रहे थे। घूमते-घूमते उनमें जो कुछ अधिक आयु के थे, वे तो थक गये। उन्होंने कहा- ‘भैया! अब तुम लोग जाओ; मैं तो अब यहीं आराम करूँगा।’ तीनों ने दिन भर कुछ भी नहीं खाया था। अतः एक तो ठहर गये, दो आगे बढ़े। बरसाना निकट आ गया। दोनों बड़े श्रद्धालु थे। दोनों ने आपस में सलाह करके यह निश्चित किया कि आज चलो, श्रीजी के अतिथि बनें। बात विनोद में हुई थी; अतः उन लोगों ने फिर इस पर विचार नहीं किया। सोचा- अब रात हो गयी है, कहाँ माँगने जायँ; यहीं रात में मन्दिर में जो कुछ प्रसाद मिल जायगा, उसे खाकर पानी पी लेंगे। उस दिन मन्दिर में उत्सव था। उत्सव देखने में लग गये। उत्सव समाप्त हुआ, लोग चले गये। करीब ग्यारह बने मन्दिर के पुजारीजी जोर-जोर से पुकारकर कहने लगे- ‘अरे, यहाँ दो आदमी श्रीजी के अतिथि कौन हैं?’ इन लोगों ने आवाज सुनी, वह विनोद की बात याद आ गयी। फिर प्रेम में निमग्न हो गये। दोनों ने कह दिया- ‘कोई होगा।’ पश्चात् पुजारीजी इन दोनों को ले गये और प्रसाद में जो-जो बढ़िया-से-बढ़िया चीजें थीं, भरपेट खूब प्रेम से दोनों को खिलायीं। इन लोगों ने प्रेम में भरकर खूब आनन्द से प्रसाद पाया तथा पूर्ण तृप्त होकर फिर एक छतरी में जाकर सो रहे, जो वह वहाँ से दूर, कुछ ही दूर हटकर थी। सोने के बाद दोनों को एक समय एक ही स्वप्न आया।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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