प्रेम सत्संग सुधा माला
42- भागवत में महापुरुष की उच्च स्थिति का लक्षण बतलाते हुए यह कहा गया है कि जिसे सचमुच ब्रम्ह की प्राप्ति हो जाती है, उसे यह ध्यान भी नहीं रहता कि मेरा शरीर बैठा है कि खा रहा कि टट्टी-पेसाब कर रहा है। उसे अपने शरीर का बिलकुल ही ज्ञान नहीं रहता। जैसे शराब पीकर मनुष्य पागल हो जाय और फिर उसके ऊपर वस्त्र है या नहीं- इस बात का उसे ज्ञान नहीं होता, वैसे ही ब्रम्ह प्राप्त पुरुष को अपने शरीर का ज्ञान नहीं होता कि यह छूट गया है कि है। वह तो सदा के लिये आत्मानन्द में डूब जाता है। शरीर लोगों की दृष्टि में प्रारब्ध रहने तक काम करता है, फिर वह भी प्रारब्ध समाप्त होते ही गिर पड़ता है। ये स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण के वाक्य हैं। अब आप सोंचे- यदि कोई सचमुच ब्रम्हप्राप्त पुरुष आपको मिला है तो उनमें यदि वह सच्चा प्राप्त पुरुष है तो ये लक्षण घटेंगे ही; पर यदि दीखता है कि वह महापुरुष पेशाब करता है, भोजन करता है, सबसे बातचीत करता है, व्यवहार में सलाह देता है और कहीं भी पागलपन नहीं दीखता तो फिर दो में एक बात होनी चाहिये- या तो वह प्राप्त पुरुष नहीं है, साधक है, या वह इतने ऊँचे स्तर पर पहुँचा हुआ पुरुष है कि उसके प्रारब्ध को निमित्त बनाकर उसके अन्तःकरण में स्वयं भगवान् ही उसकी जगह काम करते हुए जगत् में अपनी भक्ति, अपने तत्वज्ञान का प्रचार कर रहे हैं। इन दो बातों के अतिरिक्त तीसरी बात मेरी समझ में नहीं आती। या तो उसमें कमी है या वह इतना ऊँचा है कि स्वयं भगवान् उसके शरीर रूप खोली के अन्दर से काम कर रहे हैं। देखिये, आपने भगवान् को देखा है? नहीं देखा है। पर फिर उन्हें मानते क्यों हैं? इसीलिये मानते हैं कि संतों ने उन्हें देखा है और शास्त्र कहते हैं कि ‘भगवान् हैं’ अतः उसी शास्त्र की यह बात है कि संत- असली संत का स्वरुप ऐसा होता है। विश्वास होना तो कठिन है; क्योंकि अन्तःकरण सांसारिक वासनाओं से इतना भरा होता है कि सत्य का प्रकाश उसमें छिपा रहता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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