प्रेम सत्संग सुधा माला पृ. 44

प्रेम सत्संग सुधा माला

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परसच मानिये- जिस दिन आपका अन्तःकरण तैयार हो जायगा अर्थात् संसारसे बिलकुल उपरत हो जायगा, उस दिन संत में ही नहीं, आपकी जहाँ दृष्टि जायगी-वहीँ एक भगवान्-ही-भगवान् दीखेंगे। पर अभी तो जो आपको दीखता है, उसी को लेकरआपके प्रश्न पर विचार करना है। अस्तु! आपको जहाँ संत दीखते हैं, केवल वहाँ ही नहीं, जहाँ यह घड़ी दीखती है, वहाँ भी श्रीभगवान् हैं और पूर्ण रूप से हैं। आपमें, मुझमें, इनमें और सब वस्तुओं में हैं। आपमें, इनमें, हममें प्रकट नहीं हैं- यहाँ छिपे हुए हैं। येही भगवान् जहाँ आपको संत का शरीर रूप खोली दीखती है- वहाँ प्रकट रहते हैं। अवश्य हीइस बात को समझ लेना थोड़ा कठिन है; क्योंकि वास्तव में इस बात को बताने के लिये कोई दृष्टान्त नहीं है। पर ऐसे समझने की चेष्टा करें कि जिस दिन श्रद्धा हो जायगी, उस दिन तो यह घड़ी ही भगवान् बन जायगी। दीवाल, खंभे- सब भगवान् बन जायँगे और प्रह्लाद की तरह फिर सब में भगवान् के ही दर्शन होंगे। यह तो श्रद्धा की बात है; क्योंकिइन चीजों में भगवान् प्रकट नहीं हैं। पर जहाँ रकत हैं,, वहाँ श्रद्धा की आवश्यकता नहीं होती। वहाँ जरूरत होती है केवल देखनेकी, सम्पर्क में आने की। घड़ी देखने से अपने को भगवान् की अनुभूति नहीं हो सकती, न घड़ी आपका कल्याण ही कर सकती है। परसंत को देखने मात्र से ही, सम्पर्क में आने मात्र से ही आपको भगवान् की अनुभूति होनी प्रारम्भ हो जायगीऔर संत का दर्शन आपका कल्याण कर देगा; क्योंकि वहाँ भगवान् प्रकट हैं।

जैसे आग इस कलम में भी है, इस चौकी में भी है और हमारे शरीर में भी है; पर फिर भी संध्या होते ही हमें ठंढ लगेगी ही। पर यहीं पर यदि इस कलम, इस चौकी को घिसने से आग प्रकट हो जाय तो फिर तो श्रद्धा की आवश्यकता नहीं होगी कि हमारी ठंढ दूर हो; इसके पास बैठते ही ठंढ दूर हो जायगी, चाहे आँख मूँदकर ही क्यों न बैठें। एक अंधे को भी बाहर से लाकर यदि यहाँ बिठा देंगे, जो आग देख नहीं सकता, श्रद्धा भी नहीं कर सकता कि आग ऐसी होती है, पर ठंढ उसकी भी दूर होगी।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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