हे स्वामी! अनन्य अवलम्बन, हे मेरे जीवन-आधार।
तेरी दया अहैतुकपर निर्भर कर आन पड़ा हूँ द्वार॥
जाऊँ कहाँ जगत में तेरे सिवा न शरणद है कोई।
भटका, परख चुका सबको, कुछ मिला न, अपनी पत खोई॥
रखना दूर, किसी ने मुझसे अपनी नजर नहीं जोड़ी।
अति हित किया-सत्य समझाया, सब मिथ्या प्रतीति तोड़ी॥
हुआ निराश, उदास, गया विश्वास जगतके भोगोंका।
जिनके लिये खो दिया जीवन, पता लगा उन लोगोंका॥
अब तो नहीं दीखता मुझको तेरे सिवा सहारा और।
जल-जहाजका कौआ जैसे पाता नहीं दूसरी ठौर॥
करुणाकर! करुणाकर सत्वर अब तो दे मन्दिर-पट खोल।
बाँकी झाँकी नाथ! दिरखाक तनिक सुना दे मीठे बोल॥
गूँज उठे प्रत्येक रोम में परम मधुर वह दिव्य स्वर।
हृत्तन्त्री बज उठे साथ ही मिला उसीमें अपना सुर॥
तन पुलकित हो, सु-मन जलज की खिल जायें सारी कलियाँ।
चरण मृदुल बन मधुप उसीमें करते रहें रंगरलियाँ॥
हो जाऊँ उन्मत्त, भूल जाऊँ तन-मनकी सुधि सारी।
देखूँ फिर कण-कण में तेरी छबि नव-नीरद-घन प्यारी॥
हे स्वामिन्! तेरा सेवक बन तेरे बल होऊँ बलवान।
पाप-ताप छिप जायें हो भयभीत मुझे तेरा जन जान॥