हे नाथ! तुम्हीं सबके मालिक, तुम ही सबके रखवारे हो।
तुम ही सब जग में व्याप रहे विभु! रूप अनेकों धारे हो॥
तुम ही नभ-जल-थल-अग्रि तुम्हीं, तुम सूरज-चाँद-सितारे हो।
यह सभी चराचर है तुममें, तुम ही सबके ध्रुवतारे हो॥
हम महामूढ़ अज्ञानी-जन प्रभु! भव-सागरमें डूब रहे।
नहिं नेक तुम्हारी भक्ति करें, मन मलिन विषयमें खूब रहे॥
सत्सङ्गति में नहिं जायँ कभी, खल-सङ्गति में भरपूर रहे।
सहते दारुण दुख दिवस-रैन, हम सच्चे सुखसे दूर रहे॥
तुम दीनबन्धु, जग-पावन हो, हम दीन-पतित अति भारी हैं।
है नहीं जगत में ठौर कहीं, हम आये शरण तुम्हारी हैं॥
हम पड़े तुम्हारे हैं दरपर, तुमपर तन-मन-धन वारे हैं।
अब कष्ट हरो हरि, हे हमरे! हम निंदित निपट दुखारे हैं॥
इस टूटी-फूटी नैया को, भवसागर से खेना होगा।
फिर निज हाथों से नाथ! उठाकर, पास बिठा लेना होगा॥
हे अशरण-शरण! अनाथनाथ! अब तो आश्रय देना होगा।
हमको निज चरणों का निश्चित नित दास बना लेना होगा॥