श्रीकृष्ण माधुरी पृ. 67

श्रीकृष्ण माधुरी -सूरदास

अनुवादक - सुदर्शन सिंह

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राग आसावरी

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चतुर नारि सब कहति बिचारि।
रोमावली अनूप बिराजति जमुना की अनुहारि ॥1॥
उर कलिंद तैं धँसि जल धारा उदर धरनि परवाह।
जाति चली धारा ह्वै अध कौं नाभी हृद अवगाह ॥2॥
भुजा दंड तट सुभग घाट घट बनमाला तरु कूल।
मोतिन माल दुहूधा मानौ फेन लहरि रस फूल ॥3॥
सूर स्याम रोमावलि की छबि देखत करति बिचार।
बुद्धि रचति तरि सकति न सोभा प्रेम बिबस ब्रजनार ॥4॥

सब चतुर स्त्रियाँ ( रोमावलीके सम्बन्धमे ) विचार करके कहती हैं - ’ यह अनुपम वक्षःस्थलरुपी कलिन्द पर्वतसे गिरकर उदररुपी पृथ्वीपर प्रवाहित हो नीचे नाभिरुपी अथाह कुण्डमे ( गिरनेके लिये ) चली जा रही है । दोनो भुजदण्ड ( इसके ) किनारे है हृदय मनोहर घाट है वनमाला किनारेके वृक्ष और मोतियोंकी माला मानो दो भागोंमे बँटी रससे फूलों फेनोंकी लहर ( श्रेणी ) है । ’ सूरदासजी कहते है कि श्यामसुन्दरकी रोमावलीकी शोभा देखकर ( व्रजकी ) स्त्रियाँ विचार करती है वे बुद्धिद्वारा ( अनेक प्रकारकी ) कल्पना करती है पर उस शोभाका पार न पा प्रेममे विभोर हो जाती है ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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