श्रीकृष्ण माधुरी पृ. 60

श्रीकृष्ण माधुरी -सूरदास

अनुवादक - सुदर्शन सिंह

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राग कल्यान

49
बने बिसाल अति लोचन लोल।
चितै चितै हरि चारु बिलोकनि
मानौ माँगत है मन ओल ॥1॥
अधर अनूप नासिका सुंदर
कुंडल ललित सुदेस कपोल।
मुख मुसुक्यात महा छबि लागति
स्त्रवन सुनत सुठि मीठे बोल ॥2॥
चितवति रहति चकोर चंद ज्यौं
नैकु न पलक लगावति डोल।
सूरदास प्रभु कैं बस ऐसे
दासी सकल भईं बिनु मोल ॥3॥

श्रीहरिके विशाल एवं चञ्चल नेत्र बहुत ही भले लगते है सुन्दर चितवनसे देख-देखकर वे मानो मनको रुपमें माँग रहे है। अनुपम ओठ सुन्दर नाक मनोहर कुण्डल सुघर कपोल मुसकराते समय मुखकी बडी शोभा होती है तथा उनके शब्द कानोंमें सुननेपर बहुत ही मोठे लगते है। जैसे चकोर चन्द्रमाको बिना हिले-डुले अपलक देखता रहता है। सूरदासजी कहते है उसी प्रकार मेरे स्वामीके वशमें हो गयी हैं मानो सब-की-सब उनकी बिना मूल्यकी दासी हो ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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