श्रीकृष्ण माधुरी पृ. 141

श्रीकृष्ण माधुरी -सूरदास

अनुवादक - सुदर्शन सिंह

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राग जैतश्री

128
बिधना अतिही पोच कियौ री।
कहा बिगार कियौ हम वाकौ
ब्रज काहे अवतार दियौ री॥1॥
यह तौ मन अपने जानत ही
एते पै क्यु निठुर हियौ री।
रोम रोम लोचन इकटक करि
जुबनिति प्रति काहे न ठियौ री ॥2॥
अखियाँ द्वै छबि की चमकनि वह
हम त चाहति सबै पियौ री।
सुनि सजनी ! यह करनी अपनी
अपने ही सिर मानि लियौ री ॥3॥
हम तो पाप कियौ भुगतौ को
पुन्य प्रगट क्यों जात छियौ री।
सूरदास प्रभु रुप सुधा निधि
पुट थोरौ बिधि नाहिं बियौ री ॥4॥

(गोपियाँ कहती है-)सखी ! ब्रह्म ने यह बहुत ही बुरा किया, हमने उसका क्या बिगाड़ा था, उसने हमें ब्रज में जन्म क्यों दिया ? वह यह तो अपने मन में जनता था, (कि ब्रज में श्याम का दर्शन होगा), इतने पर भी उसका ह्रदय निष्ठुर कैसे बना रहा ? प्रत्येक ब्रज-युवती के रोम-रोम में अपलक (पलकरहित) नेत्रों का निर्माण क्यों नहीं किया ? (हमारे) दो आँखें हैं और वे (अपार) शोभा की कांतिवाले , हम तो उस शोभा को पूरा ही तो पाप किया तो उसका फल (दूसरा) कौन भोगे । (मोहन का रूप तो) प्रत्यक्ष पुण्य है, वह (हमारे द्वारा) कैसे छुआ जा सकता है ।सूरदास जी कहते हैं- मेरे स्वामी तो सौंदर्यरूप अमृत के सागर हैं; उसे पीने के लिए (नेत्र रूपी दो)पात्र कम हैं और (अब इन्हें बड़ा बनाने वाला कोई) दूसरा ब्रह्मा है नहीं ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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