श्रीकृष्ण माधुरी पृ. 140

श्रीकृष्ण माधुरी -सूरदास

अनुवादक - सुदर्शन सिंह

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राग रामकली

127
देखि री देखि कुंडल झलक।
नैन द्वै छबि धरौं कैसे लगति तापर पलक ॥1॥
लसति चारु कपोल दुहुँ बिच सजल लोचन चारु।
मुख सुधा सर मीन मानो मकर संग बिहारु ॥2॥
कुटिल अलक सुभाइ हरि के भुवन पै रहे आइ।
मनो मनपथ फँदे फंदनि मीन बिबि तट ल्याइ ॥3॥
चपल लोचन चपल कुंडल चपल भ्रुकुटी बंक। मोटे अक्षर
सखा ब्याकुल देखि अपने लेत बनत न संक ॥4॥
सूर प्रभु नँद सुवन की छबि बरनि कापै जाइ।
निरखि गोपी निकर बिथकी बिधिहि अति सिर पाइ ॥5॥

(गोपी कह रही है-)सखी ! (श्याम के) कुण्डलों की कंति देख, मेरे दो ही तो नेत्र है उनमें ये शोभा कैसे रखूँ । इस पर भी (ये अपलक नहीं रहते)उन पर पलकें बार-बार गिर जाती हैं , मानो मुख रूपी अमृत के सरोवर में मछलियाँ मगरों के साथ खेल रही हों । श्याम की घुँघराली अलकें स्वाभाविक ही भौंहों पर लटक आयी हैं, मानो कामदेव जाल में फँसा कर दो मछलियों को किनारे ले आया हो । चंचल नेत्र, चंचल कुण्डल और चंचल टेढ़ी भौंहों ऐसी हैं, मानो (कामदेव)अपने सखा[1](मीन-मगरों)-को व्याकुल देखकर भी भौंहरूप धनुष से शंकित हो रक्षा न कर पाता हो ।सूरदास जी कहते हैं- मेरे स्वामी नंदनदंन की शोभा का वर्णन भला, किससे हो सकता है, जिन्हें देखकर झुंड-की-झुंड गोपियाँ अत्यंत मुग्ध होती हुई (नेत्रों में पलक बनाने वाले) ब्रह्मा पर अत्यंत रूष्ट हो रही हैं ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. कामदेव को मीनकेतु एवं मकरध्वज कहा जाता है, इसलिये मत्स्य एवं मगर उसके मित्र माने गये ।

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