श्रीकृष्ण माधुरी पृ. 107

श्रीकृष्ण माधुरी -सूरदास

अनुवादक - सुदर्शन सिंह

Prev.png

राग बिभास

( गोपिका कहती है- ) गोकुल गाँव तो ( मेरे ) रँगीले ( प्रेममय ) स्वामीका है ( जहाँ ) मोहनको देखकर चित्तका क्लेश दूर हो जाता है । मोर-मुकुट कुण्डल और वनमाला पहिने इस छटासे श्रीनन्दनन्दन खडे है । हाथमे वंशी ( और अंगपर ) पीताम्बर शोभित है देखते ही सबका मन मोहित कर लेते है । इन श्यामने मेरे मनको ऐसा मोहित कर लिया है (जिससे) आश्चर्यमे पडीकी भाँति घूमती-फिरती हूँ । तन-मनको दूसरा कुछ अच्छा नही लगता; बैठती हूँ उठती हूँ गिर-गिर पडती हूँ । अगणित कामदेवके बाण लगे है कुछ कहा नही जा सकता; श्यामसुन्दररुपी वैद्यको बुलाओ दूसरा कोई उपाय नही है । मैने तो गुरुजनोंकी ( भी ) लज्जा छोड दी अब मुझे इस शरीरका ( भी ) ध्यान नही रहता । लोग कहते है- ’ यह पागल हो गयी है ( जो ) पति-पुत्रको छोडकर वनमें दौडी-दौडी घूमती है । ’ प्राणो ( शरीर ) की भी सुधि एवं सम्हाल छोड दी श्रीकृष्णकी शोभा हृदयमे बस गयी है । मदनमोहनको देखकर दौडी और उसी ( बेसुध ) दशामे कुञ्जमे चली गयी । कुञ्जभवनमे केसरकी खौर ( पूरे ललाटपर तिलक ) सजाये नवलकिशोर खडे थे उनके मोर-मुकुटकी चन्द्रिकापर मै अपने प्राण न्योछावर कर दूँ ( उनके उस ) बनावपर खडे होनेके ढंगपर मैं बलिहारी गयी । मेरे इन नेत्रोंने यह महान प्रतिज्ञा ठान ली ( कर ली ) कि सदा गिरिधारीको देखते ही रहे । किसीका कहना ( समझाना ) चित्तपर जमा नही नेत्रोंने कमललोचनको पहिचान लिया ( उनसे प्रेम कर लिया ) । ’ सखी ! नन्दकिशोरको देख करोडो किरणोंके ( समान ) प्रकाशित है यमुनाके किनारे खडे है वंशीध्वनि कानोंसे सुनायी पड रही है । उस वंशीने देवता मनुष्य-सबको वशमे कर लिया है ( और उसकी धुन ) सुनते ही ( समस्त ) पापोंका नाश हो जाता है । ’ सूरदासजी कहते है - अपने स्वामीसे ( मेरी ) यही प्रार्थना है कि सदा उनके चरणोंमे मेरा निवास रहे ।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

-

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः