श्रीकृष्ण के प्रेमोद्गार-श्रीराधा के प्रति(राग भैरव-तीन ताल)हे आराध्या राधे! मेरा मन सदा-दिन-रात तुझी में बसा रहता है। मुझको तेरा दर्शन मिलता रहे, इसी लोभ से मैं गोकुल में बस रहा हूँ ॥ 1॥ तेरे ही रस के तत्व को जानने और उसका आस्वादन करने के लिये मैं बाँसुरी बजाता रात-दिन इधर-उधर घूमता-फिरता हूँ ॥ 2॥ इसी के लिये मैं स्नान करने को यमुना पर जाया करता हूँ और तट पर बैठा रहता हूँ। तेरी रूपमाधुरी का दर्शन करने के लिये मेरा चित्त अधीर-उतावला रहता है ॥ 3॥ इसी कारण मैं कदम्ब के नीचे अवस्थित रहता हूँ और नित्य तेरा ही ध्यान-तेरा ही चिन्तन करता रहता हूँ। तेरी रूपछटा रूप स्वाति के जल का पान करने के लिये मैं पपीहे की भाँति सदा तरसता रहता हूँ-लालायित रहता हूँ ॥ 4॥ तेरे रूप, शील-स्वभाव तथा गुणों की मोहक मधुरता बरबस मेरे चित्त को चुरा लेती है। इसी से मैं नित्य तेरे प्रेम के गीत गाता हुआ सदा उसी में तन्मय रहता हूँ ॥ 5॥ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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