श्रीकृष्ण के प्रेमोद्गार-श्रीराधा के प्रतिमहाभाव-रसराज-वन्दनाप्राणनाथ! मैं तो तुम्हारी नित्य दासी- सदा की चेरी हूँ। तुम मेरे प्राणों के स्वामी तथा जीवन-सर्वस्व हो, मैं तुम पर बलिहारी हूँ- न्यौछावर हूँ ॥ 1॥ चाहे तुम मुझसे अत्यन्त प्रेम करो, शरीर और मन से मुझ को अंगीकार करो अथवा द्रोह करो, त्रासो, दुःख देकर मुझको छोड़-छिटका दो ॥ 2॥ तुम्हारा सुख ही मेरा सुख है, दूसरा कोई सुख मैं रंचमात्र भी नहीं जानती। यदि तुम मेरे दुःख में सुख का अनुभव करो तो (तुमको सुखी देखकर) उस दुःख में मैं ऐसे महान् सुख का अनुभव करूँ, जिसकी कहीं उपमा नहीं ॥ 3॥ मैं जो सुख बिलसती हूँ, वह भी तुम्हारे सुख के कारण ही; मेरे मन में दूसरे सुख की कल्पना ही नहीं। मैं तुमको नित्य- संध्या से सबेरे तक और सबेरे से संध्या तक- रात-दिन सुखी देखना चाहती हूँ ॥ 4॥ तुमको सुखी देखने के लिये ही मैं अपने शरीर और मन को सुखी रखती हूँ- मुझे सुखी देखकर तुमको सुख होता है, इसी कारण मैं शरीर और मन से सुखी रहती हूँ। अपने-आपको तुम्हें अर्पण करके मैं सदा तुम्हारी रुचि का ही सेवन करती हूँ ॥ 5॥ मुझे मुझको ‘प्राणेश्वरी’, ‘ह्रदय की स्वामिनी’, ‘कान्ता’ (प्यारी) कहकर सुख प्राप्त करते हो, इसी से मैं इन सब सम्बोधनों को स्वीकार कर लेती हूँ, ग्रहण कर लेती हूँ, यद्यपि इन शब्दों को सुनकर मुझको मन में बहुत संकोच होता है- संकोच के मारे मैं गड़ जाती हूँ ॥ 6॥ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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