श्रीकृष्ण के प्रेमोद्गार-श्रीराधा के प्रति(राग भैरवी तर्ज-तीन ताल)हे प्रियतम! तुम यन्त्री- यन्त्र के चालक हो, मैं यन्त्र हूँ; मैं काठ की पुतली हूँ, तुम सूत्रधार- पुतली को नचाने वाले हो। तुम अपनी इच्छा के अनुसार मुझसे क्रिया करवाते तथा बुलवाते एवं अपने इशारे पर नचाते रहो ॥ 1॥ मैं नित्य जो कुछ करती, बोलती तथा नाचती हूँ, सब तुम्हारे अधीन रहकर ही; मेरे भीतर कोई अहंकार- अपनी कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। मेरा मन सर्वथा मौन- क्रियाहीन हो गया है; नहीं-नहीं, मेरे मन की अलग सत्ता ही नहीं रही- तुम्हारा मन ही मेरा मन बन रहा है। मैं तो अचिन्त्य (किसी की धारणा में न आये, ऐसा) खिलौना हूँ, तुम्हीं उससे खेलने वाले हो ॥ 2॥ मुझको क्या करना है और क्या नहीं करना है- इस पर मैं कैसे कुछ विचार करूँ। तुम ही स्वयं सोचकर, जिससे तुमको सुख हो, ऐसा तुमको प्यारा लगने वाला विहार- तुम्हारी रुचि का खेल स्वच्छन्दता से (किसी तरह का संकोच न करके) नित्य करते रहो ॥ 3॥ मैं तो सदा बोलने में असमर्थ, क्रियाहीन, चेष्टाशून्य (हिलने-डुलने में भी अशक्त) तथा विकाररहित (प्रतिक्रिया शून्य) हूँ। तुम जिस क्षण, जो कुछ करना चाहो, वही सदा किया करो- मेरी ओर से कोई शर्त अथवा करार नहीं है ॥ 4॥ मेरे लिये मरना-जीना कैसा और कैसा मेरा मान-अपमान। अर्थात् मेरे लिये मरना-जीना और मान-अपमान भी कुछ अर्थ नहीं रखते। प्रियतम! ये सब तुम्हारे ही महान् सुखमय नित्य के खेल हैं ॥ 5॥ तुमने अपने हाथ का खिलौना बनाकर मुझको अत्यन्त निहाल कर दिया है। यह भी मैं कैसे मानूँ अथवा जानूँ? अपना हालचाल तुम ही जानो। (कारण, तुम्हीं सब कुछ करते-कराते हो) ॥ 6॥ इतनी बात जो मैं कह गयी, वह भी तुम जानते हो कि कौन कहाँ पर है, कौन बोल-बुलवा रहा है; सच बात तो यह है कि मुझमें स्वर भरकर तुम्हीं मुखरा-जैसे बनकर बोले हो। मैं तो वाचालता से शून्य- मौन हूँ ॥ 7॥
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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