श्रीकृष्ण के प्रेमोद्गार-श्रीराधा के प्रतिमहाभाव-रसराज-वन्दनाप्यारी राधे! तुम्हारे-जैसी तो तुम एक ही हो और किसी में भी तुम्हारी समता नहीं है। तुम्हारे भीतर सुधा-रस का अनन्त सागर लहराया करता है, जिसका कहीं ओर-छोर नहीं दीखता ॥ 1॥ उसमें मैं सदा डूबा रहता हूँ, कभी उतराता नहीं। किसी क्षण तुम्हारी इच्छा से ही (ऊपर आकर) तरंगों में लहराता रहता हूँ ॥ 2॥ परंतु वे तरंगें भी एक तुम्हारे ही परम रमणीय महत्व का गान किया करती हैं; उन लहरों का समस्त सौन्दर्य तथा माधुर्य एकमात्र तुम्हारी ही सम्पत्ति— निजस्व है ॥ 3॥ तो भी उनके बाह्य रूप में ही मैं लहराता रहता हूँ, इससे अधिक मैं क्या कहूँ? केवल तुमको सुखी करने के लिये ही किसी क्षण सहज रूप से मैं उतराने लगता हूँ ॥ 4॥ मेरी एकच्छत्र स्वामिनि! तुम मुझ पर अपार दया बरसाती रहती हो और मुझको सदा अपने समीप रखकर जीवन के क्षणों को सरस बनाती रहती हो ॥ 5॥ अनन्त नेत्रों से मुझमें गुण देखकर सदा मुझको सराहा करती हो तथा नित्य मेरे उपमारहित सुख को बढ़ाती हुई हृदय में अपार उल्लास भरती रहती हो ॥ 6॥ मैं सदा, सदा, सदा तुम्हारा हूँ; तुम्हारे इस नित्य अनन्य दास पर कहीं कोई दूसरा कभी रंच मात्र भी अधिकार नहीं कर सकता ॥ 7॥ जिस प्रकार से मुझको तुम नचाओगी, मैं उसी प्रकार से सदा नाचा करूँगा। यही मेरा धर्म है, यही मेरा सहज स्वभाव है और यही मेरा एकमात्र स्वाभाविक कर्म है ॥ 8॥
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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