श्रीकृष्ण के प्रेमोद्गार-श्रीराधा के प्रति(राग शिवरंजन-तीन ताल)अहो प्राणप्यारी! मेरा शरीर और मन- सब तेरा ही है, तू ही मेरी सदा एकमात्र स्वामिनी है। मेरे ये शरीर और मन और किसी के किसी काल में न तो उपभोग्य- भोगने की वस्तु हैं और भोगने वाले हैं, यह मेरी सच्ची टेक- प्रण है ॥ 1॥ मेरी देह स्थूल रूप से तेरे समीप [सदा] नहीं रहती- यह सच है, परंतु मेरा जो यह सूक्ष्म शरीर है, वह एक क्षण भी तुझसे विलग नहीं रह सकता, [तेरे वियोग में] अत्यन्त अधीर- विकल हो जाता है ॥ 2॥ यह सदा-सर्वदा तुझी से जुड़ा रहता है और इसी से तेरे चरणों के समीप ही बसा रहता है। कारण, तू ही इसके जीवन की एकमात्र जीवन- आधार है, इसमें कोई भ्रम नहीं ॥ 3॥ उस पर किसी दूसरे का किसी काल में रंच मात्र अधिकार न हुआ है और न होगा। न तो उसके द्वारा किसी को सुख मिलने का और न उसके किसी से किसी प्रकार का सुख मिल सकता है ॥ 4॥
तू मुझको यथारूचि सब कुछ (जो चाहे सो) कह सकती है, मैं तो सदा तेरे अधीन हूँ। परंतु मेरी इस बात को कभी अन्यथा मत मानना और न अपने को किसी क्षण दीन कहना ॥ 6॥ इतने पर भी मैं तेरे मन की कभी नहीं कर पाता। इसी से मैं सदा तेरे लिये दुःख का ही कारण बना रहता हूँ ॥ 7॥ परंतु मेरी तो तुझसे यह विनती है की तू अपनी ओर देखकर मेरे समस्त अपराधों को भूल जा और मुझको अपने चरण-कमलों की पावन धूल देकर कृतार्थ- निहाल करती रह ॥ 8॥
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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