श्रीकृष्ण के प्रेमोद्गार-श्रीराधा के प्रति(राग गूजर-ताल कहरवा)हे प्राणप्रियतम! मेरा धन, परिवार तथा जीवन तुम्हीं हो; तुम्हीं मेरा शरीर और मन हो; तुम्हीं मेरे सम्पूर्ण धर्म हो। तुम्हीं मेरे समस्त सुखों के सुन्दर आलय हो। तुम्हीं प्रिय निज-जन और तुम्हीं प्राणों के मर्म- आधार हो ॥ 1॥ अधिक क्या कहूँ, तुम्हीं मेरी एकमात्र आवश्यकता हो और तुम्हीं उसकी एकमात्र पूर्ति हो। तुम्हीं मेरे लिये सब समय और सब प्रकार से उपासना करने योग्य पवित्र और मधुर-मनोहर मूर्ति हो ॥ 2॥ तुम्हीं मेरे समस्त कार्य और घर हो और तुम्हीं मेरे एकमात्र महान् लक्ष्य हो। आठों पहर तुम मेरे मन रूपी मन्दिर में भगवान्- इष्टदेव के रूप में बसे रहते हो ॥ 3॥ तुम मेरी समस्य इन्द्रियों को नित्य पवित्रतम स्पर्श सुख का दान करते रहते हो। मेरे भीतर और बाहर तुम सदा अविराम अपनी मधुर तान छेड़ा करते हो ॥ 4॥ तुम कभी मेरे नेत्रों से अदृश्य नहीं होते, एक पलक भर भी संयोग का त्याग नहीं करते और सदा घुले-मिले रहकर पवित्र रस का सम्भोग करते एवं करवाते रहते हो ॥ 5॥ परंतु इसमें मेरा तुमसे भिन्न कभी कुछ दूसरा अभिप्राय नहीं रहता। मेरे समस्त संकल्प भंग हो चुके हैं और अहंकार तथा ममता के वृक्ष जड़ से कट गये हैं ॥ 6॥ भोगने वाले और भोगने की वस्तु- सब कुछ तुम्हीं हो और तुम्हीं स्वयं भोग की क्रिया बने हो और मेरा मन बनकर तुम्हीं संयोग और वियोग- सभी का अनुभव किया करते हो ॥ 7॥ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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