श्रीकृष्ण के प्रेमोद्गार-श्रीराधा के प्रति(राग भैरवी तर्ज-तीन ताल)मेरे जीवनधन! मैं सदा सोचती रहती हूँ कि तुमको क्या दूँ। जो धन मैं तुमको देना चाहती हूँ, मेरा वह धन तो तुम ही हो ॥ 1॥ तुम्हीं मुझको प्राणों से प्यारे हो और हे प्रियतम! मैं सदा तुम्हारी हूँ। तुम्हारी ही वस्तु तुमको देती हुई मैं पल-पल तुम पर बलिहारी- न्यौछावर हूँ ॥ 2॥ हे प्यारे! मैं अपने मन की बात विवेकपूर्वक- होश-हवाश में तुमसे कैसे कहूँ? औरों के तो अनेक हैं, परंतु मेरे तो हे प्रियतम! तुम एक ही हो ॥ 3॥ अधिक क्या कहूँ, मेरे सम्पूर्ण साधनों की सिद्धि- सफलता एकमात्र तुम्हीं हो। तुम ही मेरे प्राणनाथ हो और तुम्हीं मेरा नित्य ऐश्वर्य- स्थिर सम्पत्ति हो, केवल इतनी बात मैं जानती हूँ ॥ 4॥ देह, धन और परिवार का बन्धन टूट गया; भोग और मोक्ष का रोग भी मिट गया। एक तुम्हारा प्यार संयोग- मिलन पाकर हे प्रियतम! मैं धन्य-धन्य हो गयी ॥ 5॥
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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