श्रीकृष्ण के प्रेमोद्गार-श्रीराधा के प्रति(राग भैरवी तर्ज-तीन ताल)हे प्रियतमे राधिके! तेरी महिमा उपमारहित, अवर्णनीय और अनन्त है। मैं युग-युगान्तर से बिना विराम लिये उसका गान करता आ रहा हूँ, तब भी उसका कहीं अन्त- ओर-छोर नहीं मिलता ॥ 1॥ तेरे मधुर अनमोल बोल मेरे ह्रदय में आनन्दामृत बरसाया करते हैं। तेरे मधुर कमल-से नेत्र तथा बाँकी भौंहों के मोल मैं सदा के लिये बिक चुका हूँ ॥ 2॥ अपनी मुरली में मैं तेरे उपमारहित मधुर एवं श्रेष्ठ नाम की रात-दिन रट लगाया करता हूँ और अतृप्त नेत्रों से तेरे अत्यन्त मनोहर रूप को नित्य निहारता रहता हूँ ॥ 3॥ तेरे-जैसा निर्मल पवित्र प्रेम मुझको कहीं नहीं मिला, कहीं भी मेरे मन की आशा पूर्ण नहीं हुई। एकमात्र तू ही मुझको ऐसी मिली है, जिसने मेरी अभिलाषा पूरी की है ॥ 4॥ मैं (अपने ही आनन्द से) नित्य तृप्त रहने वाला और सदा निष्काम- कामनाहीन हूँ। ऐसे मुझमें मधुर अपरिमित अतृप्ति और अत्यन्त मधुर अपरिमित कामना जगा देना- यह तेरे अलौकिक प्रेम का ही जादूभरा मधुर फल है ॥ 5॥ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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