श्रीकृष्ण के प्रेमोद्गार-श्रीराधा के प्रति(राग परज-तीन ताल)हे कमल-जैसे नेत्रों वाले श्यामसुन्दर! हे दुःख से छुड़ाने वाले व्रजराज-किशोर! हे मेरे चितचोर! मैं तुमको अपने ह्रदय रूप भवन में निरन्तर- बिना बाधा निहारती रहूँ ॥ 1॥ मेरा मन चाहता है कि लोक लाज, मान-प्रतिष्ठा तथा कुल की मर्यादारूपी समस्त पर्वतों को चकनाचूर करके मैं तुमको सदा ही अपने समीप बनाये रखूँ, एक पलक भी और तनिक भी दूर नहीं रहने दूँ ॥ 2॥ परंतु मैं तो निरी गँवार ग्वालिनी हूँ, गुणों से रीती, कलंकिनी और सदा ही कुरूपा हूँ। इसके विपरीत तुम अत्यन्त चतुर, अनन्त गुणों के भण्डार, कुल के महान् भूषण तथा सुन्दरता के स्वरुप ही हो ॥ 3॥ कहाँ मैं रस के ज्ञान से सर्वथा शून्य, रसहीन और कहाँ तुम रस के मर्मज्ञ तथा रसिकों के सिरमौर हो। इतने पर भी तुम दया के सागर [मुझ पर दया करके ही] मेरे ह्रदय में सदा विराजित रहते हो ॥ 4॥
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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