राधा! तेरे दर्शन को मैं उत्सुक रहता -हनुमान प्रसाद पोद्दार

पद रत्नाकर -हनुमान प्रसाद पोद्दार

श्री कृष्ण के प्रेमोद्गार

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राग जंगला- ताल कहरवा


राधा! तेरे दर्शन को मैं उत्सुक रहता, नित्य अधीर।
को‌ई नहीं जान सकता यह मेरे अन्तस्तल की पीर॥
पीड़ा वह अति व्यथित बनाती, व्याकुल करती अति स्वच्छन्द।
सीमा से अतीत उस स्मृति से होता उदय अमित आनन्द॥
वह आनन्द नित्य पल-पल नव-पीड़ा का उद्भव करता।
पीड़ासे फिर स्मृति बढ़ती, फिर नवानन्द मनमें भरता॥
यों ही अमिलन-दुख स्मृति-सुख का सागर रहता लहराता।
उसमें सहज प्रिये! मैं रहता सतत डूबता-‌उतराता॥
बीच-बीच में मिलनाकांक्षा बढक़र उग्र रूप धरती।
तब हो उदित रूप-माधुरि मधु मन के सारे दुख हरती॥

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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