यद्यपि करता सदा तुम्हारे ही पावन तन-मन में बास।
छोड़ नहीं जा सकता पलभर अन्य किसी के भी मैं पास॥
पर जब हृदय-सुधोदधि में भड़का तव विरहज बड़वानल।
मेरे जुड़े हृदय में भी जल उठी तुरत विरहाग्रि प्रबल॥
सुनकर दुःख भरे फिर भीषण प्रिये! तुम्हारे ये उद्गार।
मर्म-वेदना बढ़ी भयानक, उमड़ा दुःख का पारावार॥
दीर्घ काल से सहन कर रहा मानो मैं वियोग-संताप।
मानो लगा मुझे है कोई दारुण अति विछोह-अभिशाप॥
कितनी पीड़ा है अन्तर में कितना है भीषण उर-दाह।
नहीं बता सकता कैसे भी, करने पर भी शत-शत चाह॥
अब तो तुम्हीं मिटाओ, प्यारी! दे दर्शन, मधु आलिङ्गन।
बिना तुम्हारे अब तो सम्भव नहीं पलकभर यह जीवन॥
प्यारी! किंतु तुम्हारा-मेरा सम्भव नहीं कदापि वियोग।
मैं तुम, तुम मैं, कभी न न्यारे-नित्य ऐक्य संतत संयोग॥