जब तुम कहती हो- हे छलिया -हनुमान प्रसाद पोद्दार

पद रत्नाकर -हनुमान प्रसाद पोद्दार

श्री कृष्ण के प्रेमोद्गार

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राग जंगला - ताल कहरवा


जब तुम कहती हो- ‘हे छलिया, जादूगर, निष्ठुर, शठराज’!
कहती- ‘हृदय छीनकर अब यों नहीं रुलाते आती लाज॥
समझ न सकी तुम्हें मैं, भूली देख मधुरतम मोहन वेश।
वज्र-कठोर हृदय है, जिसमें नहीं तनिक करुणा का लेश॥
व्याकुल-विह्वल होती मैं अति, पाती नहीं पलकभर चैन।
नित रहते सावन-भादों-से सतत बरसते दुखिया नैन॥
भूले, नहीं बुलाते मुझको, आने की न चलाते बात।
जलती रहूँ विरह-ज्वाला में मैं चाहे अविरत दिन-रात॥
होने लगी तुम्हें क्यों मेरी कितव! तनिक-सी भी अब चाह।
डूबे रहते सुख-सागर में, क्यों मेरी करते परवाह॥
करना था यदि यही तुम्हें, तो क्यों मुझसे जोड़ा था नेह।
मन में आता, कर दूँ तुमसे त्यक्त भस्म यह पापी देह’॥
सबोधन अति लगते मीठे, सुनता रहूँ चाहता मन।
पर जब उनके साथ देखता मलिन-विषण्ण सुधांशु-वदन॥

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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