महामहिम मुनि-मनहर -हनुमान प्रसाद पोद्दार

पद रत्नाकर -हनुमान प्रसाद पोद्दार

श्रीराधा माधव लीला माधुरी

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राग भीमपलासी - ताल कहरवा


महामहिम मुनि-मनहर, मञ्जुल, मधुर परम मंगलमय श्याम।
पल-पल वर्द्धमान शुचि अनुपम दिव्य रूप-लावण्य ललाम॥
कुटिल भ्रुकुटि करती आकर्षित बरबस मनको अपनी ओर।
उमड़ उठा रस-सागर परमानन्द, कहीं भी ओर-न-छोर॥
रूप सिन्धु में मन निमग्र था, पर न तनिक-सा जगा विकार।
जगना दूर रहा, स्वाभाविक चित्त हो गया शुचि अविकार॥
तन्मयता हो गयी, तनिक भी रहा न तनका बाह्य जान।
प्रलय नहीं, पर मिटी जगत्‌ की सारी रचना, सारा भाव॥
इतने में हो गया अचानक आँखों से ओझल वह रूप।
सहसा व्यथा-वियोग-वह्नि जल उठी, बढ़ गयी विपुल अनूप॥
पर आश्चर्य, विरह-दावानल में प्रियतम-स्मृति रही अभङ्ग।
ले अगणित शीतल सुधांशु की सुधामयी शीतलता संग॥
घोर तापमें थी विचित्र अनुपम शीतलता की अनुभूति।
सहज विरोधी धर्म प्रकट थे, युगपत थी अद्‌भुत आकूति॥
सखी! बताऊँ मैं कैसे प्रियतमके प्रतिदिन के वे छन्द।
प्रियतम हैं स्वच्छन्द सदा, ये लीला‌एँ भी हैं स्वच्छन्द॥

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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