प्रेम सुधा सागर पृ. 267

श्रीप्रेम सुधा सागर

दशम स्कन्ध
(पूर्वार्ध)
चालीसवाँ अध्याय

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अक्रूर जी के द्वारा भगवान श्री कृष्ण की स्तुति

अक्रूर जी बोले- प्रभो! आप प्रकृति आदि समस्त कारणों के परम कारण हैं। आप ही अविनाशी पुरुषोत्तम नारायण हैं तथा आपके ही नाभिकमल से उन ब्रह्मा जी का आविर्भाव हुआ है, जिन्होंने इस चराचर जगत की सृष्टि की है। मैं आपके चरणों में नमस्कार करता हूँ। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, अहंकार, महत्तत्त्व, प्रकृति, पुरुष, मन, इन्द्रिय, सम्पूर्ण इन्द्रियों के विषय और उनके अधिष्ठातृ देवता- यही सब चराचर जगत तथा तथा उनके व्यवहार के कारण हैं और ये सब-के-सब आपके ही अंगस्वरूप हैं।

प्रकृति और प्रकृति से उत्पन्न होने वाले समस्त पदार्थ ‘इंद्रवृत्ति’ के द्वारा ग्रहण किये जाते हैं, इसलिये ये सब अनात्मा हैं। अनात्मा होने के कारण जड़ है और इसलिये आपका स्वरूप नहीं जान सकते। क्योंकि आप तो स्वयं आत्मा ही ठहरे। ब्रह्मा जी अवश्य ही आपके स्वरूप हैं। परन्तु वे प्रकृति के गुण रजस से युक्त हैं, इसलिये वे भी आपकी प्रकृति का और उसके गुणों से परे का स्वरूप नहीं जानते। साधु योगी स्वयं अपने अतःकरण में स्थित ‘अन्तर्यामी’ के रूप में, समस्त भूत-भौतिक पदार्थों में व्याप्त ‘परमात्मा के’ रूप में और सूर्य, चन्द्र, अग्नि आदि देवमण्डल में स्थित ‘इष्ट-देवता’ के रूप में तथा उनके साक्षी महापुरुष एवं नियन्ता ईश्वर के रूप में साक्षात आपकी ही उपासना करते हैं।

बहुत-से कर्मकाण्डी ब्राह्मण कर्ममार्ग का उपदेश करने वाली त्रयीविद्या के द्वारा, जो आपके इन्द्र, अग्नि आदि अनेक देववाचक नाम वज्रहस्त, सप्तर्षि आदि अनेक रूप बतलाती है, बड़े-बड़े यज्ञ करते हैं और उनसे आपकी ही उपासना करते हैं। बहुत-से ज्ञानी अपने समस्त कर्मों का संन्यास कर देते हैं और शान्त-भाव में स्थित हो जाते हैं। वे इस प्रकार ज्ञानयज्ञ के द्वारा ज्ञानस्वरूप आपकी ही आराधना करते हैं। और भी बहुत-से संस्कार-सम्पन्न अथवा शुद्धचित्त वैष्णवजन आपकी बतलायी हुई पांचरात्र आदि विधियों से तन्मय होकर आपके चतुर्व्यूह आदि अनेक और नारायणरूप एक स्वरूप की पूजा करते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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