प्रेम सुधा सागर पृ. 190

श्रीप्रेम सुधा सागर

दशम स्कन्ध
(पूर्वार्ध)
सत्ताईसवाँ अध्याय

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आपने जीवों के समान कर्मवश होकर नहीं, स्वन्त्रता से अपने भक्तों की तथा अपनी इच्छा के अनुसार शरीर स्वीकार किया है। आपका यह शरीर ही विशुद्ध-ज्ञानस्वरूप है। आप सब कुछ हैं, सबके कारण हैं और सबके आत्मा हैं। मैं आपको बार-बार नमस्कार करता हूँ। भगवन! मेरे अभिमान का अन्त नहीं है और मेरा क्रोध भी बहुत ही तीव्र, मेरे वश के बाहर है। जब मैंने देखा कि मेरा यज्ञ तो नष्ट कर दिया गया, तब मैंने मूसलाधार वर्षा और आँधी के द्वारा सारे व्रजमण्डल को नष्ट कर देना चाहा। परन्तु प्रभो! आपने मुझ पर बहुत ही अनुग्रह किया। मेरी चेष्टा व्यर्थ होने से मेरे घमंड जड़ उखड गयी। आप मेरे स्वामी हैं, गुरु हैं और मेरे आत्मा हैं। मैं आपकी शरण में हूँ।

श्री शुकदेव जी कहते हैं - परीक्षित! जब देवराज इन्द्र ने भगवान श्रीकृष्ण की इस प्रकार स्तुति की, तब उन्होंने हँसते हुए मेघ के समान गम्भीर वाणी से इन्द्र को सम्बोधन करके कहा -

श्री भगवान ने कहा - इन्द्र! तुम ऐश्वर्य और धन-सम्पत्ति के मद से पूरे-पूरे मतवाले हो रह थे। इसलिये तुम पर अनुग्रह करके ही मैंने तुम्हारा यज्ञ भंग किया है। यह इसलिये कि अब तुम मुझे नित्य-निरन्तर स्मरण रख सको। जो ऐश्वर्य और धन-सम्पत्ति के मद से अंधा हो जाता है, वह यह नहीं देखता कि मैं कालरूप परमेश्वर हाथ में दण्ड लेकर उसके सिर पर सवार हूँ। मैं जिस पर अनुग्रह करना चाहता हूँ, उसे ऐश्वर्य भ्रष्ट कर देता हूँ। इन्द्र! तुम्हारा मंगल हो। अब तुम अपनी राजधानी अमरावती में जाओ और मेरी आज्ञा का पालन करो। अब कभी घमंड न करना। नित्य-निरन्तर मेरी सन्निधिका, मेरे संयोग का अनुभव करते रहना और अपने अधिकार के अनुसार उचित रीति से मर्यादा का पालन करना।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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