प्रेम सुधा सागर पृ. 189

श्रीप्रेम सुधा सागर

दशम स्कन्ध
(पूर्वार्ध)
सत्ताईसवाँ अध्याय

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प्रभो! जो मेरे-जैसे अज्ञानी और अपने को जगत का ईश्वर मानने वाले हैं, वे जब देखते हैं कि बड़े-बड़े भय के अवसरों पर भी आप निर्भय रहते हैं, तब वे अपना घमंड छोड़ देते हैं और गर्वरहित होकर संतपुरुषों के द्वारा सेवित भक्तिमार्ग का आश्रय लेकर आपका भजन करते हैं। प्रभो! आपकी एक-एक चेष्टा दुष्टों के लिये दण्डविधान है। प्रभो! मैंने ऐश्वर्य के मद से चूर होकर आपका अपराध किया है; क्योंकि मैं आपकी शक्ति और प्रभाव के सम्बन्ध में बिलकुल अनजान था।

परमेश्वर! आप कृपा करके मुझ मूर्ख अपराधी का यह अपराध क्षमा करें और ऐसी कृपा करें कि मुझे फिर कभी ऐसे दुष्ट अज्ञान का शिकार न होना पड़े। स्वयंप्रकाश, इन्द्रियातीत परमात्मन! आपका यह अवतार इसलिये हुआ है कि जो असुर-सेनापति केवल अपना पेट पालने में ही लग रहे हैं और पृथ्वी के लिये बड़े भारी भार के कारण बन रहे हैं, उनका वध करके उन्हें मोक्ष दिया जाय और जो आपके चरणों के सेवक हैं - आज्ञाकारी भक्तजन हैं, उनका अभ्युदय हो - उनकी रक्षा हो। भगवन! मैं आपको नमस्कार करता हूँ। आप सर्वान्तर्यामी पुरुषोत्तम तथा सर्वात्मा वासुदेव हैं। आप यदुवंशियों के एकमात्र स्वामी, भक्तवत्सल एवं सबके चित्त को आकर्षित करने वाले हैं। मैं आपको बार-बार नमस्कार करता हूँ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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