प्रेम सुधा सागर पृ. 171

श्रीप्रेम सुधा सागर

दशम स्कन्ध
(पूर्वार्ध)
त्रयोविंश अध्याय

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ब्राह्मण पत्नियों ने कहा - अन्तर्यामी श्यामसुन्दर! आपकी यह बात निष्ठुरता से पूर्ण है। आपको ऐसी बात नहीं कहनी चाहिये। श्रुतियाँ कहती हैं कि जो एक बार भगवान को प्राप्त हो जाता है, उसे फिर संसार में नहीं लौटना पड़ता। आप अपनी यह वेदवाणी सत्य कीजिये। हम अपने समस्त सगे-सम्बन्धियों की आज्ञा का उल्लंघन करके आपके चरणों में इसलिये आयी हैं कि आपके चरणों से गिरी हुई तुलसी की माला अपने केशों में धारण करें। स्वामी! अब हमारे पति-पुत्र, माता-पिता, भाई-बन्धु और स्वजन-सम्बन्धी हमें स्वीकार नहीं करेंगे; फिर दूसरों की तो बात ही क्या है। वीरशिरोमणे! अब हम आपके चरणों में आ पड़ी हैं। हमें और किसी का सहारा नहीं है। इसलिये अब हमें दूसरों की शरण में न जाना पड़े, ऐसी व्यवस्था कीजिये।

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा - देवियों! तुम्हारे पति-पुत्र, माता-पिता, भाई-बन्धु - कोई भी तुम्हारा तिरस्कार नहीं करेंगे। उनकी तो बात ही क्या, सारा संसार तुम्हारा सम्मान करेगा। इसका कारण है, अब तुम मेरी हो गयी हो, मुझसे युक्त हो गयी हो। देखो न, ये देवता मेरी बात का अनुमोदन कर रहे हैं। देवियों! इस संसार में मेरा अंग-संग ही मनुष्यों में मेरी प्रीति या अनुराग का कारण नहीं है। इसलिये तुम जाओ, अपना मन मुझमें लगा दो। तुम्हें बहुत शीघ्र मेरी प्राप्ति हो जायगी।

श्री शुकदेव जी कहते हैं - परीक्षित! जब भगवान ने इस प्रकार कहा, तब वे ब्राह्मण पत्नियाँ यज्ञशाला में लौट गयीं। उन ब्राह्मणों ने अपनी स्त्रियों में तनिक भी दोषदृष्टि नहीं की। उनके साथ मिलकर अपना यज्ञ पूरा किया।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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