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श्रीप्रेम सुधा सागर
दशम स्कन्ध
(पूर्वार्ध)
त्रयोविंश अध्याय
प्रिय परीक्षित! भगवान सबके हृदय की बात जानते हैं, सबकी बुद्धियों के साक्षी है। उन्होंने जब देखा कि ये ब्राह्मण पत्नियाँ अपने भाई-बन्धु और पति-पुत्रों के रोकने पर भी सब सगे-सम्बन्धियों और विषयों की आशा छोड़कर केवल मेरे दर्शन की लालसा से ही मेरे पास आयी हैं, तब उन्होंने उनसे कहा। उस समय उनके मुखारविन्द पर हास्य की तरंगें अठखेलियाँ कर रही थीं। भगवान ने कहा - ‘महाभाग्यवती देवियों! तुम्हारा स्वागत है। आओ, बैठो, कहो, हम तुम्हारा क्या स्वागत करें? तुम लोग हमारे दर्शन की इच्छा से यहाँ आयी हो, यह तुम्हारे-जैसे प्रेमपूर्ण हृदयवालों के योग्य ही है। इसमें सन्देह नहीं कि संसार में अपनी सच्ची भलाई को समझने वाले जितने भी बुद्धिमान पुरुष हैं, वे अपने प्रियतम के समान ही मुझसे प्रेम करते हैं और ऐसा प्रेम करते हैं जिसमें किसी प्रकार की कामना नहीं रहती, जिसमें किसी प्रकार का व्यवधान, संकोच, छिपावा, दुविधा या द्वैत नहीं होता। प्राण, बुद्धि, मन, शरीर, स्वजन, स्त्री, पुत्र और धन आदि संसार की सभी वस्तुएँ जिसके लिये और जिसकी सन्निधि से प्रिय लगती हैं, उस आत्मा से, परमात्मा से, मुझ श्रीकृष्ण से बढ़कर और कौन प्यारा हो सकता है। इसलिये तुम्हारा आना उचित ही है। मैं तुम्हारे प्रेम का अभिनन्दन करता हूँ। परन्तु अब तुम लोग मेरा दर्शन कर चुकीं। अब अपने यज्ञशाला में लौट जाओ। तुम्हारे पति ब्राह्मण गृहस्थ हैं। वे तुम्हारे साथ मिलकर ही अपना यज्ञ पूर्ण कर सकेंगे।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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