प्रेम सुधा सागर पृ. 167

श्रीप्रेम सुधा सागर

दशम स्कन्ध
(पूर्वार्ध)
त्रयोविंश अध्याय

Prev.png

परीक्षित! इस प्रकार भगवान के अन्न माँगने की बात सुनकर भी उन ब्राह्मणों ने उस पर कोई ध्यान नहीं दिया। वे चाहते थे स्वर्गादि तुच्छ फल और उनके लिये बड़े-बड़े कर्मों में उलझे हुए थे। सच पूछो तो वे ब्राह्मण ज्ञान की दृष्टि से थे बालक की, परन्तु अपने को बड़ा ज्ञानवृद्ध मानते थे।

परीक्षित! देश, काल अनेक प्रकार की सामग्रियाँ, भिन्न-भिन्न कर्मों में विनियुक्त मन्त्र, अनुष्ठान की पद्धति, ऋत्विज-ब्रह्मा आदि यज्ञ कराने वाले, अग्नि, देवता, यजमान, यज्ञ, और धर्म- इन सब रूपों में एकमात्र भगवान ही प्रकट हो रहे हैं। वे ही इन्द्रियातीत परब्रह्म भगवान श्रीकृष्ण स्वयं ग्वालबालों के द्वारा भात माँग रहे हैं। परन्तु इन मूर्खों ने, जो अपने को शरीर ही माने बैठे हैं, भगवान को भी एक साधारण मनुष्य ही माना और उनका सम्मान नहीं किया।

परीक्षित! जब उन ब्राह्मणों ने ‘हाँ’ या ‘ना’- कुछ नहीं कहा, तब ग्वालबालों की आशा टूट गयी; वे लौट आये और वहाँ की सब बात उन्होंने श्रीकृष्ण तथा बलराम से कह दी। उनकी बात सुनकर सारे जगत के स्वामी भगवान श्रीकृष्ण हँसने लगे। उन्होंने ग्वालबालों को समझाया कि संसार में असफलता तो बार-बार होती ही है, उससे निराश नहीं होना चाहिये; बार-बार प्रयत्न करते रहने से सफलता मिल ही जाती है।’

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

-

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः