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श्रीप्रेम सुधा सागर
दशम स्कन्ध
(पूर्वार्ध)
त्रयोदश अध्याय
परीक्षित! वे बालक और बछड़े संख्या में जितने थे, जितने छोटे-छोटे उनके शरीर थे, उनके हाथ-पैर जैसे-जैसे थे, उनके पास जितनी और जैसी छड़ियाँ, सिगी, बाँसुरी, पत्ते और छीके थे, जैसे और जितने वस्त्राभूषण थे, उनके शील, स्वाभाव, गुण, नाम, रूप और अवस्थाएँ जैसी थीं, जिस प्रकार खाते-पीते और चलते थे, ठीक वैसे ही और उतने ही रूपों में सर्वस्वरूप भगवान श्रीकृष्ण प्रकट हो गये। उस समय ‘यह सम्पूर्ण जगत विष्णु रूप है’ - यह वेदवाणी मानो मूर्तिमती होकर प्रकट हो गयी। सर्वात्मा भगवान स्वयं ही बछड़े बन गये और स्वयं ही ग्वालबाल। अपने आत्मस्वरूप बछड़ों को अपने आत्मस्वरूप ग्वालबालों के द्वारा घेरकर अपने ही साथ अनेकों प्रकार के खेल खेलते हुए उन्होंने ब्रज में प्रवेश किया। परीक्षित! जिस ग्वालबाल के जो बछड़े थे, उन्हें उसी ग्वालबाल के रूप से अलग-अलग ले जाकर उसकी बाखल में घुसा दिया और विभिन्न बालकों के रूप में उनके भिन्न-भिन्न घरों में चले गये। ग्वालबालों की माताएँ बाँसुरी की तान सुनते ही जल्दी से दौड़ आयीं। ग्वालबाल बने हुए परब्रह्म श्रीकृष्ण को अपने बच्चे समझकर हाथों से उठाकर उन्होंने जोर से हृदय से लगा लिया। वे अपने स्तनों से वात्सल्य-स्नेह की अधिकता के कारण सुधा से भी मधुर और आसव से भी मादक चुचुआता हुआ दूध उन्हें पिलाने लगीं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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